धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
|
|
भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
भाषण को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम भाग में वे भरत की प्रशंसा करते हैं। दूसरे में स्थिति की जटिलता और गुरु वसिष्ठ, महाराज श्री जनक की स्तुति करते हैं। तृतीय भाग में स्पष्ट कर देते हैं कि इस समय समस्त निर्णय तुम्हारे ही हाथ में है। इसके लिए दो बातें प्रभु ने बड़े ही कवित्वमय शब्दों में कहीं – “समग्र धर्म पृथ्वी के सदृश्य हैं और गुरु, पिता, स्वामी की आज्ञा शेष के सदृश्य हैं। समग्र धर्म इसी आधार पर टिके हुए हैं।” यह कहने का भाव है। अब शेष को भी आधार की अपेक्षा है और वह आधार तुम हो। तुम्हारे चाहने से ही धर्म रक्षित रह सकता है। त्रिवेणी विश्व-कल्याणकारिणी हैं। उसी प्रकार आज्ञापालन से भी कीर्ति, ऐश्वर्य और सद्मति रूप त्रिवेणी का प्रादुर्भाव होगा! जिसका आवाहन कर लोग मुक्त होंगे। पर यह भी तभी सम्भव है, जब तुम चाहोगे। अन्त में चौथे भाग में कहते हैं कि तुम्हें कोमल समझ कर भी विपत्ति का सबसे बड़ा भाग दे रहा हूँ, पर क्या करूँ। अपने को ही तो कष्ट दिया जा सकता है। तुम्हीं मेरे लिए सब हो। मुख क्या बिना हाथ, पैर और नेत्र की शक्ति के समग्र अंगों का पोषण करने में समर्थ हो सकता है? अब तो तुम्हीं मेरे हाथ, नेत्र, चरण तीनों हो। संकट का समय है। अतः हाथ बनकर रक्षा करो। सब लोग प्रेमान्ध हो रहे हैं – हम लोगों को नेत्र बनकर मार्ग दिखाओ। और तुम स्वयं ही चरण बन कर चलो। “सो तुम करहु करावहु मोही।”
उपरोक्त बातें प्रभु ने मधुर सांकेतिक शब्दों में श्री भरत से कही। सभी लोग राघव की स्नेह सुधा-सिक्त वाणी को सुनकर प्रेमातिरेक से समाधिस्थ हो गए। वाणी मौन हो गई। श्री भरत का मुख प्रसन्नता से चमक उठा। उनका सारा विषाद जाता रहा। राघवेन्द्र ने आज्ञा दे दी, इससे बढ़कर अपनत्व की क्या बात होगी? अतः अब माता के कृत्य आदि का भी समस्त शोक जाता रहा। उठकर खड़े हुए। मानो गूँगे को वाणी मिल गई हो। अभिप्राय यह है कि जैसे गूँगा अस्पष्ट शब्दों में बोलता है, अपने मनोभावों को वाणी के अभाव में व्यक्त नहीं कर पाता, उसी तरह श्री भरत का पहला भाषण अस्पष्ट था।
|