धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
स्तब्धता भंग की मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् राघवेन्द्र ने। आज प्रभु भी भाषण दे रहे हैं श्री भरत के पश्चात्। साधारण तो क्या महान् व्यक्ति की बात भी उनके बाद नीरस प्रतीत होती है। अतः आज मानो श्री राम भी अपनी समस्त ज्ञानमाला का स्मरण कर भाषण दे रहे हैं। इसलिए महाकवि भी सभी विशेषण एकत्र कर देते हैं –
देखि दयाल दसा सबही की।
राम सुजान जानि जन जी की।।
धरम धुरीन धीर नय नागर।
सत्य सनेह सील सुख सागर।।
देसु काल लखि समउ समाजू।
नीति प्रीति पालक रघुराजू।।
बोले बचन बानि सरबसु से।
हित परिनाम सुनत ससि रसु से।।
वक्ता-श्रोता दोनों ही अद्वितीय हैं। यदि वक्ता प्रभु हैं, तो श्रोता की विशेषता राघव के मुँह से सुनिये–
तात भरत तुम्ह धरम धुरीना।
लोक बेद बिद प्रेम प्रबीना।।
दो. – करम बचन मानस बिमल तुम्ह समान तुम तात।
गुर समाज लघु बंधु गुन कुसमयँ किमि कहि जात।।
“तुम समान तुम तात” इससे अधिक किसी के विषय में क्या कहा जा सकता है। आदि से अन्त तक कौशलकिशोर का भाषण भरत के प्रति आदर, स्नेह, वात्सल्य तथा धार्मिकता से परिपूर्ण है। वह सचमुच ससि-रस है, जो आज भी हम सदृश कुलिश हृदयों को द्रवित कर देता है।
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