धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
भरत-भाषण के पश्चात् सभा में स्तब्धता छा गई। नागरिक तो द्वन्द्व के कारण मौन थे। और जितने गुरुजन थे, उनकी बुद्धि पर श्री भरत जी की भक्ति ने ताला लगा दिया था। अभिप्राय यह है कि सभी लोग यह सोचकर मौन हो जाते हैं कि हम लोग तो लघु मति से विचार करके कुछ कह सकते थे, पर श्री भरत ने तो सब कुछ कह दिया। वह सब बुद्धि वैभव नहीं, भक्त के हृदय की सच्ची भक्ति है। अवाक् होकर एकटक प्रभु के मुखचन्द्र का दर्शन कर रहे हैं –
सभा राउ गुरु महिसुर मंत्री।
भरत भगति सब कै मति जंत्री।।
रामहि चितवत चित्र लिख से।
सकुचत बोलत बचन सिखे से।।
वास्तव में वे दोनों ओर से कुछ कहने में असमर्थ हैं। यदि भरत जी के वाक्यों का उत्तर देना चाहें, तो भक्ति के सामने उनकी मति असमर्थ थी। और यदि श्री भरत की ओर से बोलना चाहें, तो ऐसा लगेगा मानो रटकर बोल रहे हैं, क्योंकि श्री भरत ने सभी कुछ कह दिया है।
परिस्थिति की स्तब्धता से लाभ उठाकर महाकवि भरत के प्रेम का चित्रण करना चाहते हैं। उनकी नम्रता, बड़प्पन, सौशील्य की झाँकी भी दिखाना चाहते हैं। किन्तु हृदय में हर्षातिरेक होते हुए भी वर्णन में कठिनाई का अनुभव करते हैं। और तब वे पहले की ही भाँति अपनी असमर्थता का वर्णन कर देते हैं –
भरत प्रीति नति बिनय बड़ाई।
सुनत सुखद बरनत कठिनाई।।
जासु बिलोकि भगति लवलेसू।
पेम मगन मुनिगन मिथिलेसू।।
महिमा तासु कहै किमि तुलसी।
भगति सुभायँ सुमति हियँ हुलसी।।
आपु छोटि महिमा बड़ि जानी।
कवि कुल कानि मानि सकुचानी।।
कहि न सकति गुन रुचि अधिकाई।
मति गति बाल बचन की नाई।।
दो. – भरत बिमल जसु बिमल बिधु सुमति चकोरकुमारि।
उदित बिमल जन हृदय नभ एकटक रही निहारि।।
भरत सुभाउ न सुगम निगमहूँ।
लघुमति चापलता कबि छमहूँ।।
कहत सुनत सति भाउ भरत को।
सीय राम पद होइ न रत को।।
सुमिरत भरतहि प्रेम राम को।
जेहि न सुलभु तेहि सरिस बाम को।।
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