धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत प्रेममूर्ति भरतरामकिंकर जी महाराज
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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन
विन्धयागिरि की वृद्धि से एक बार ऐसी परिस्थिति आ गई कि विश्व को सूर्य का प्रकाश पाना कठिन हो गया। महर्षि अगस्त्य ने इस लोक-संकट को दूर किया! महर्षि को देखकर वह झुक गया, आज्ञा हुई कि मैं दक्षिण से जब तक न लौटूँ, तब तक इसी प्रकार झुके रहो। न महर्षि ही लौटे और न विन्ध्य ही उठा। श्री भरत ने देखा कि आज भी ठीक वैसा ही हो रहा है। हम सबका स्नेह विन्ध्यगिरि के समान बनकर प्रभु के धर्म-पालन-रूप-सूर्य को ढकना चाहता है। इससे विश्व का अहित ही होगा। साथ ही राघवेन्द्र को संकोच। अतः उन्होंने अपने विवेक-रूपी-अगस्त्य द्वारा उनका निवारण कर दिया।
किंवा आज श्री भरत का कार्य वैसा ही है, जैसा हिरण्याक्ष द्वारा पृथ्वी का हरण कर लेने पर भगवान् बाराह द्वारा उसका उद्धार। शोक ही हिरण्याक्ष है। उसने लोगों की मति-रूपा विमल गुणमयी पृथ्वी का अपहरण कर लिया है। श्री भरत के ‘विवेक-रूप-विशाल-बाराह’ ने उद्धार कर दिया।
यहाँ दो उपमाएँ ही गई हैं। क्योंकि श्री भरत के द्वारा दो कार्य सम्पन्न हुए। लोग शोक और संकोच के कारण उत्तर नहीं दे रहे थे। “प्रभु का धर्म पालन आवश्यक था, अतः उन्हें जाने देना चाहिए।” किन्तु हृदय में इस कल्पना से शोक और संकोच दोनों उमड़ पड़ते थे कि राघव को कर्तव्यपालन करने देना चाहिए। यह कहने में संकोच होता था और उनके वन में रहने की कल्पना से हृदय व्यथित हो जाता था। महात्मा भरत का स्नेह देखकर लोगों का संकोच और भी बढ़ जाता था कि प्रेमी तो लौटाने आवे और हम लोग वन में रहने का निर्णय देकर विवेक का प्रयोग करें। यह कितनी लज्जा की बात है। महाराज जनक के “अब हम बन ते बनहि पठाई, प्रमुदित फिरब बिबेक बड़ाई” के व्यंग्य में यही भावना निहित है। श्री भरत ने स्वयं अपने स्नेह को रोककर उन लोगों के संकोच को दूर कर दिया। साथ ही शोक के कारण वे लोग कुछ कह नहीं पाते थे, सो स्वयं ही खड़े होकर लोगों की मति का उद्धार कर दिया।
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