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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822
आईएसबीएन :9781613016169

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


उन्हें पादत्राण विहीन, वल्कल वसनधारी प्रभु का वन-वन भटकना दुखद था। वे प्रभु के वनस्थ दुःखों का नाश करना चाहते हैं, यही उनका परम ध्येय है और केवल इसीलिए राघवेन्द्र को अवध में ले जाना चाहते हैं। पर प्रभु ने एक ऐसा संकेत किया, जिसे समझने में प्रेमी को विलम्ब न लगा। कौशलेन्द्र कुमार ने कहा – “भरत मुझे पितृ-आज्ञा का उल्लंघन करने में मानस कष्ट होगा, किन्तु तुम्हारी इच्छा पर उसका भी उल्लंघन कर सकता हूँ।”

इससे क्या सिद्ध हुआ? भरत का अनुरोध मानकर राघवेन्द्र लौट सकते हैं। उनका शारीरिक कष्ट दूर हो जायेगा। किन्तु उसके बदले में एक ऐसा कष्ट होगा, जो उसकी अपेक्षा तीव्र है। “तासु बचन मेटत अति सोचू” – मानस पीड़ा। भरत के सामने निर्णय करने के लिए स्थिति स्पष्ट है। वन में रहने पर प्रभु को शारीरिक कष्ट होते हुए भी पितृ-आज्ञा-पालन सत्कर्म के नाते अतीव हार्दिक प्रसन्नता होगी। अवध लौटने पर शारीरिक कष्ट दूर हो जाएँगे, किन्तु उन्हें पितृ-आज्ञा-भंग की मानस पीड़ा होगी। क्योंकि वे भरत के संकोच से ही ऐसा करने को प्रस्तुत हुए हैं – इसे वे स्पष्ट कह चुके हैं कि “तेहि ते अधिक तुम्हार सँकोचू”। मानस और शारीरिक कष्ट में कौन अधिक भयानक है? इसमें कोई विवादास्पद बात नहीं। सच पूछिये तो शारीरिक कष्ट और मानस कष्ट की तुलना ही नहीं हो सकती। मन प्रसन्न रहने पर शरीर को कष्ट का भान भी नहीं होता और समग्र बाह्य-भोग प्राप्त हों, मानस दुख हो, तो सब कुछ विषवत् प्रतीत होने लगता है। क्या भरत प्रभु को बाह्य सुख देने के लिए मानस पीड़ा में डालना स्वीकार कर सकते हैं। कदापि नहीं। श्री भरत सूक्ष्मदर्शी प्रेमी है, उन्हें अपनी वचन-रक्षा का कोई आग्रह नहीं। उनका लक्ष्य है ‘तत्सुख’। उसके लिए वे सभी कष्ट झेलने को प्रस्तुत हैं और इसीलिए उस महान् प्रेमतत्वज्ञ ने प्रभु से लौटने का आग्रह नहीं किया। अपितु यही प्रार्थना की कि आपकी प्रसन्नता ही मेरी प्रसन्नता है। आपके हृदय में जिससे थोड़ा भी कष्ट, संकोच न हो, वही कीजिए। बिना प्रेमी के इतना अनाग्रही कौन हो सकता है। उनका सम्भाषण प्रेमामृत का सार सर्वस्व है।

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