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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822
आईएसबीएन :9781613016169

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


इस वाक्य ने हृदय और मस्तिष्क पर इतना भीषण आघात पहुँचाया कि वे यह पूछना ही भूल जाते हैं कि उसने वह कौन-सा ‘काज सँवारा है,’ जिनके सामने महाराज की मृत्यु ‘कछुक काज’ हो गयी। ‘हा पिता!’ कह पृथ्वी पर गिर पड़े। ‘हा पिता!’ मैंने चलते समय तुम्हें न देखा। तुमने राम के हाथ में मुझे न सौंप दिया! पर अचानक मृत्यु कैसे हो गयी? यदि रुग्ण होते तो मुझे सूचना अवश्य देते। और तब वे पुन: पूछते हैं लौह-कठोर कैकेयी से-

कहु  पितु  मरन  हेतु  महतारी ।

इस समय कैकेयी का हृदय इतना विषाक्त था कि उसे विश्वास था कि सम्पूर्ण घटना सुन लेने के पश्चात् भरत का दुःख नष्ट हो जायगा, अत: उसके द्वारा श्री भरत जी के हृदय को संतप्त करनेवाला उत्तर ही प्राप्त हुआ-

आदिहु तें सब आपनि करनी ।
कुटिल कठोर मुदित मन बरनी ।।

सुनकर भरत स्तब्ध हो गये। सम्पूर्ण अंग जड़वत् हो गये। भूमितल में गिरने की भी क्षमता न थी। प्रत्येक इन्द्रिय ने अपना कार्य बंद कर दिया। इसके बाद हम पुन: उस कठोरहृदया को समझाते हुए देखते हैं। पिताजी की मृत्यु को सुनकर भूमि पर गिर जाने और इस बार चुप रह जाने का उसने अर्थ यही लगाया कि भरत को पिता की मृत्यु का ही दुःख हुआ। पर यह तो उसका भ्रम था। अत्यधिक आघात लगने पर मनुष्य मृततुल्य हो जाता है। वह पीड़ा इतनी असह्य होती है कि संवेदनशील तन्तु ही कार्य करना बंद कर देते हैं। अवश्य ही हम चोट लगने और अत्यधिक चोट लगने पर इस अन्तर को नित्य देख सकते हैं। जहाँ आघात में मनुष्य चीखता-चिल्लाता है, वहाँ अत्यधिक आघात में एक शब्द भी उसके मुख से नहीं निकलता। कैकेयी उनके पितृशोक को शान्त करने के लिये महाराज की प्रशंसा करती हुई ‘सहित समाज राज पुर करहू’ की सम्मति देती है। आह! कैसी बुद्धि की विडम्बना है! यह आघात पर आघात कितना निर्मम था। यह वाणी लेखनी का विषय नहीं। महाकवि ने एक उपमा के द्वारा इसे किंचित् व्यक्त करने की चेष्टा की है-

मनहुँ  जरे  पर  लोनु  लगावति ।

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