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धर्म एवं दर्शन >> प्रेममूर्ति भरत

प्रेममूर्ति भरत

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :349
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9822
आईएसबीएन :9781613016169

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भरत जी के प्रेम का तात्विक विवेचन


आज नगर-प्रवेश पूर्व-जैसा न था। मार्ग में न तो क्षेमकरी ने क्षेम की सूचना दी, न श्यामा ने अपने मधुर कण्ठ से स्वागत किया। कौए का कर्कश कण्ठ ही मानो भविष्य की सूचना दे रहा था। और उसके कण्ठ में भी न केवल कठोरता थी, अपितु करुण चीत्कार था। नगर की विशाल अट्टालिकाओं से कीर्तन और संगीत की सुमधुर ध्वनि भी आज नहीं सुनायी पड़ रही थी। पर इसके विपरीत श्रृंगाल और गर्दभ का शब्द हृदय को प्रकम्पित कर रहा था। वे सुन्दर सरोवर, जहाँ नगरवासिनी ललनाओं की भीड़ लगी रहती थी, जनशून्य हो रहे थे? सूर्योदय होने पर भी कमल प्रफुल्लित नहीं थे। न थी वहाँ भ्रमरों की भीड़। आज जल भी तरंगायित होकर जनसमूह को अपनी ओर आमन्त्रित नहीं कर रहा था। म्लान चुपचाप पड़ा मानो यह इच्छा व्यक्त कर रहा था कि मुझे न छुओ, मुझे मौन रहने दो। आज सरयू को व्यथा हो गयी है। महाभाग्यवती सरयू ऐसी म्लान, उदास-सी क्यों पड़ी है? प्रभु के सुखद संस्पर्श का नित्य अनुभव पानेवाली की यह दशा क्यों? पर उत्तर कौन दे। वृक्ष पुष्प-फल के बोझ से झुके हुए नदी के जल का स्पर्श नहीं कर रहे हैं। पत्र पुष्पविहीन मानो, बस, एक ही इच्छा व्यक्त कर रहे हैं-‘हमें काटकर कोई जला दो। हममें सदा के लिये पतझड़ आ गया। हम इस भूमि में नहीं रहना चाहते।’

सारे सुन्दर उपवन मानो दावाग्नि से झुलसा दिये गये हों। पर दावाग्नि भला यहाँ कैसे? यदि किसी प्रकार आग लग भी गयी तो बुझाने का समुचित प्रबन्ध हो सकता था। पर उन्हें कौन बताये कि यह वह दावाग्नि लगी है, जिसने न केवल वनों के वृक्षों को, अपितु पशु-पक्षी मृगों की तो कथा क्या-सारे नगरवासियों को जीवित होते हुए भी मृतवत् बना डाला है । वह दावाग्नि, जिसे बुझाने की शक्ति प्रलयकालीन मेघों में भी नहीं है। आज पक्षी अपने सुमधुर कण्ठ से ‘भजहु राम रघुपति जन पालक’ का उपदेश आने-जाने वालों को नहीं दे रहे हैं। राममार्ग जनशून्य कैसे? यत्र-तत्र कोई दीखता भी है तो भूषणहीन, म्लान, आँसू बहाता हुआ। आज भैया भरत का स्वागत करने के लिए जनसमूह उत्साहित होकर कोलाहल करता हुआ आगे नहीं बढ़ा। अट्टालिकाओं से न तो युवतियों ने मंगलमय लाजा ही बरसाया। कुछ लोगों ने देखा, वे दूर से ही प्रणाम करते हैं, पर उनके जुड़े हुए हाथ थर-थर काँप क्यों रहे हैं? धार्मिक पुरवासियों से ऐसी उपेक्षा और विधिहीनता! हे भगवान्! क्या हो गया इनको? पूछने का मन होता है, पर पूछें किससे? कोई निकट आये, तब न। चर भी साथ हैं अवश्य, पर मुख दूसरी ओर हैं। पूछने के लिये हाथ उठता है, मुख चरों की ओर करते हैं, पर कण्ठ भय और शोक से रुंध जाता है। हृदय सुनना नहीं चाहता। धैर्यशाली दूत भी अपने दुःख को छिपा नहीं पा रहे हैं। दीर्घ निःश्वास बरबस ही निकल पड़ता है। मुख दूसरी ओर करने पर भी आँखों से आँसू निकल कर भेद को व्यक्त करना चाहते हैं और तब वे आकाश की ओर देखने लग जाते हैं। स्वेद बिन्दुओं को पोंछने के मिस अपने उत्तरीय से आँसुओं को पोंछ लेते हैं। श्री भरत की स्थिति दावाग्नि-भयभीत मृग-जैसी हो रही थी। वे शीघ्र-से-शीघ्र अपने भैया के सुखद शीतल अंग में छिप जाने को उत्सुक हो उठे और तब वे घोड़ों को कैकेयी अम्बा के महल की ओर तीव्र गति से ले चले।

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