धर्म एवं दर्शन >> परशुराम संवाद परशुराम संवादरामकिंकर जी महाराज
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रामचरितमानस के लक्ष्मण-परशुराम संवाद का वर्णन
प्रभु का पद अचल है, इसीलिए जिसने अचल पद का आश्रय ले लिया, वह अचल हो गया। दोनों संवादों में जो अंतर है वह बड़े महत्त्व का है। रावण मूर्तिमान् मोह है और मोह की वृत्ति क्या है? हनुमान् जी आये और कथा सुनाकर चले गये। अंगद आये और प्रत्यक्ष रूप से चल-अचल दिखाने की चेष्टा की, परन्तु रावण जहाँ का तहाँ रह गया। उसमें कोई भी अन्तर नहीं आया। हमको और आपको सुनकर भी और देखने पर भी संसार की अनित्यता का तो प्रत्यक्ष साक्षात्कार होता है, फिर भी हमारे भीतर कोई परिवर्तन नहीं होता। यही हमारे अन्तःकरण का मोह रूपी रावण है।
लंका के दृश्य में एक ओर संतों और भक्तों के द्वारा परिवर्तन की चेष्टा है और दूसरी ओर रावण जैसे व्यक्तियों में परिवर्तन न होना है, पर विदेहनगर में जो संवाद हुआ, वह परिणति बहुत सुंदर है। लंका की तरह नहीं है। भले ही उसमें बड़ी तू-तू मैं-मैं दिखायी देती हो, लेकिन इसका अन्तिम परिणाम कितना बढ़िया हुआ? साधारण व्यक्ति तो यह कहेगा कि परशुराम हार गये, श्रीराम जीत गये, पर सचमुच यह प्रसंग जीत-हार का प्रसंग नहीं है। यदि जीत-हार की बात होती तो श्रीराम को गर्व होता कि मैंने परशुराम को हरा दिया और परशुराम को क्षोभ होता कि मैं एक क्षत्रिय कुमार के सामने भरी सभा में हार गया, लेकिन परशुराम जी को इतना आनंद हुआ कि शरीर में रोमांच हो आया, आँखों में आँसू आ गये, गद् गद हो गये। परशुराम तो इन बातों से सदा दूर थे, लेकिन पहली बार यह प्रक्रिया हुई कि जब उन्होंने श्रीराम को पहचाना तो गोस्वामीजी कहते हैं कि इतने आनन्दित हो गये –
जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात। 1/284
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