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धर्म एवं दर्शन >> परशुराम संवाद

परशुराम संवाद

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :35
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9819
आईएसबीएन :9781613016138

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रामचरितमानस के लक्ष्मण-परशुराम संवाद का वर्णन


मैं बताता हूँ कि मैं कौन हूँ? मूल सूत्र यही है कि अखण्ड से दृष्टि खण्ड पर जायेगी तो दुःखी होना पड़ेगा और कर्तृत्व को स्वीकार कर लेंगे कि मैंने यह किया तो समस्या अवश्य आयेगी। श्रीराम के द्वारा धनुष टूटा और परशुरामजी ने क्षत्रियों का संहार किया, लेकिन दोनों रामों में अन्तर यही है कि एक तो यह दावा करता है कि-
    निपटहिं द्विज करि जानहिं मोही।
    मैं   जसबिप्र   सुनावउँ   तोही ।।
    चाप   स्रुवा   सर   आहुति  जानू।
    कोपु   मोर  अति   घोर  कृसानु।।
    समिधि   सेन   चतुरंगसुहाई ।
    महा   महीप   भए  पसु   आई।।
    मैं एहिं परसु काटि बल दीन्हे।
    समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे।।
    मोर  प्रभाउ  बिदित   नहिं   तोरें।
    बोलसि   निदरि   बिप्र   के   भोरें।। 1/282/1-5

‘मैं’ और ‘मोर’ से भरा पड़ा है उनका भाषण। प्रभु को हँसी आ गयी। जब कोई व्यक्ति मैं और मेरेपन को स्वीकार करेगा, कर्तृत्व को स्वीकार करेगा, अखण्ड से हटकर खण्ड से दृष्टि जोड़ेगा तो चाहे वह साक्षात् ईश्वर का ही अंश क्यों न हो, उसके जीवन में भी दुःख और उद्वेग आये बिना नहीं रहेगा। मानो परशुराम संवाद का प्रारम्भ से तत्त्व के रूप में रहस्य यही है। भगवान् राम यह नहीं कहते कि मैंने तोड़ा। तोड़ने वाला आपका सेवक होगा यह कहा, परन्तु परशुरामजी ने यह क्यों मान लिया कि तोड़ने में अपमान ही है। तोड़ने में सेवा भी हो सकती है।

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