धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया लोभ, दान व दयारामकिंकर जी महाराज
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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
प्राचीनकाल में शिक्षा पूरी होने पर गुरु-दक्षिणा देने की परम्परा थी। उनके शिष्यों ने भी गुरुजी से पूछा - गुरुदेव! हम आपको क्या दक्षिणा दें? आप आज्ञा करें! द्रोणाचार्यजी को अपना अपमान भूला नहीं था। उन्होंने कहा - तुममे से जो सचमुच मुझे गुरु-दक्षिणा देना चाहता है वह द्रुपद को पकड़कर मेरे पास ले आये। सब शिष्य तो ऐसा नहीं कर सके पर अर्जुन एक महान् योद्धा थे, उन्होंने द्रुपद को युद्ध में हराया और उन्हें रस्सियों से बाँधकर द्रोणाचार्यजी के सामने डाल दिया।
द्रोणाचार्य ने द्रुपद को सामने पाकर उनसे कहा- मित्र द्रुपद! तुम मुझे पहचान गये या नहीं? मैं अब तुमसे आधा राज्य लूँगा। उन्होंने आधा राज्य लेकर अपने पुत्र को दे दिया और फिर द्रुपद को मुक्त भी कर दिया। द्रुपद ने अपने आपको अत्यन्त अपमानित अनुभव किया। इस प्रकार महाभारत में क्रिया-प्रतिक्रिया की एक लम्बी श्रृंखला दिखायी देती है। किसी ने मुझसे एक बार पूछा कि रामायण और महाभारत में अन्तर क्या है? मैंने यही कहा कि महाभारत अर्थात् जैसा होता है, और रामायण माने जैसा होना चाहिये। महाभारत में अपमान बदला और एक दूसरे के प्रति हिंसा-प्रतिहिंसा की वृत्ति सर्वत्र दिखायी देती है।
द्रुपद अपनी इस हार और अपमान से मन ही मन क्रोध से भर जाते हैं पर उस समय कुछ नहीं कर पाते। वे सोचते हैं कि इस तरह अपमानित करने वाले द्रोणाचार्य को मैं जिन्दा नहीं रहने दूँगा। इसलिए वे मुनियों के पास जाते हैं और प्रार्थना करते हैं कि मुझे एक ऐसा पुत्र चाहिये जो द्रोणाचार्य का वध कर सके। अनेकानेक मुनियों ने कहा कि वे ऐसा यज्ञ नहीं करायेंगे, पर कहा जा सकता है कि संयोगबस या फिर ऐसी भवितव्यता थी की एक आचार्य मिल ही गये। यज्ञ हुआ और उस यज्ञ के अग्निकुण्ड से द्रुपद को धृष्टद्युम्न के रूप में एक पुत्र तथा द्रौपदी के रूप में एक पुत्री की प्राप्ति हुई। यह विदित ही है कि द्रोणाचार्यजी धृष्टद्युम्न के हाथों मारे गये।
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