धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया लोभ, दान व दयारामकिंकर जी महाराज
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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
गुरु वशिष्ठ उनकी बात सुनकर उन्हें निष्काम बनने का उपदेश नहीं देते, वे यह नहीं कहते हैं कि राजन्! क्यों पुत्र चाहते हो? क्या पुत्र पाने से ही कल्याण होता है? तुम्हें तो इस इच्छा का त्याग करके मुक्ति-प्राप्ति की दिशा में प्रयास करना चाहिये। ऐसे उदाहरण भी प्राप्त होते हैं कि जिनमें पुत्र-प्राप्ति के बाद पिता के दुःखों में वृद्धि की बात सामने आती है। गुरु वशिष्ठ तो महान् हैं, वे जानते हैं कि यदि किसी के जीवन में कामना है तो उसे निष्कामता का उपदेश न देकर, कैसे उसकी कामना की दिशा को एक कल्याणकारी मोड़ दे दिया जाय! गुरु वशिष्ठ महाराज दशरथ से कहते हैं - राजन्! तुम्हें पुत्र पाने के लिये यज्ञ करना होगा। वशिष्ठजी का यह सूत्र- यदि जीवन में कामना है तो उसे यज्ञ से जोड़ देना चाहिये, बड़े महत्त्व का है। आइये! यज्ञ के स्वरूप और अर्थ पर थोड़ा विचार कर लें! जीवन में हमारे कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिन्हें हम अपने और अपने परिवार के लिये करते हैं। पर यज्ञ का अर्थ है - ऐसे कर्म का सम्पादन करना, जिसके मूल में सबके कल्याण की कामना निहित हो। गुरु वशिष्ठ जानते हैं कि महाराज दशरथ निष्काम कर्म के अधिकारी नहीं हैं, इसलिए वे उन्हें यज्ञ-कर्म का आदेश देते हैं। गुरु वशिष्ठ की दूसरी विलक्षणता भी सामने आती है। वे स्वयं उस यज्ञ के आचार्य बनने के स्थान पर श्रृंगी ऋषि को आचार्यत्व सौंप देते हैं। बहुधा यजमान और पुरोहित बनने के लिये बड़े झगड़े होते देखे जाते हैं, पर गुरु वशिष्ठ दशरथ जी से कहते हैं कि इस पुत्रेष्टि-यज्ञ का आचार्य, मैं नहीं, श्रृंगी ऋषि होंगे और उस यज्ञ से तुम्हें चार पुत्र प्राप्त होंगे-
सृंगी रिषिहि बसिष्ठ बोलावा।
पुत्रकाम सुभ जग्य करावा।। 1/188/5
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