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धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया

लोभ, दान व दया

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :69
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9814
आईएसबीएन :9781613016206

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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन


इसी प्रकार से समाज में जितनी उन्नति होती है, उसके मूल में लोभ होता है। अभी एक सज्जन कह रहे थे कि यदि संतोष हो जाय तो उन्नति बंद हो जायगी। यह बात ठीक है क्योंकि लोभ होने से ही उन्नति होती है पर उन्नति होने से, लाभ होने से देखा जाता है कि फिर लोभ भी बढ़ जाता है और इस तरह यह एक जटिल समस्या के रूप में हमारे सामने आती है, यह न हो तो कठिनाई और हो तो भी कठिनाई है। इसलिये इसका विश्लेषण इस रूप में नहीं किया जाना चाहिये कि लोभ एक निन्दनीय वस्तु है। इसलिये किन्हीं लोभ की निन्दा की गयी है तो अन्य किन्हीं प्रसंगों में इसकी अपेक्षा भी बतायी गयी है, प्रशंसा भी की गयी है।

जहाँ लोभ की प्रशंसा की गयी है उसे इस रूप में बताने की चेष्टा की गयी है कि समाज में जो उन्नति होती है वह असंतोष के द्वारा होती है। ऐसी स्थिति में लोभ निर्माण और उन्नति के पथ में सहायक है पर यही लोभ की वृत्ति जब संघर्ष उत्पन्न करती है, टकराहट का कारण बनती है, तो ऐसी स्थिति में यह अशान्ति और दुःख की सृष्टि करती है और तब तक वह निंदनीय बन जाती है। लोभ के संदर्भ में यह बड़े महत्व का सूत्र है इसे रामायण में अनेक रूपों में स्पष्ट करने की चेष्टा की गयी है। नीतिशास्त्र में भी एक वाक्य आता है जिसमें कहा गया है कि -
अतिलोभो न कर्तव्य: लोभ नैव परित्यजेत्।

अर्थात् अतिलोभ नहीं करना चाहिये, पर लोभ का परित्याग भी नहीं करना चाहिये पर कठिनाई यह है कि लोभ और अतिलोभ के बीच में विभाजक रेखा कहाँ पर है? कोई दीवार होती तो निर्णय कर लेते कि अब उस पार न जायँ। अत: इन बातों के कहने का तात्पर्य यही है कि समाधान पाने के लिये सावधान रहकर विचार करने की आवश्यकता है। और विचार करने के बाद यथासंभव उसे जीवन में उतारने की भी चेष्टा करें।

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