धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया लोभ, दान व दयारामकिंकर जी महाराज
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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
तुम विचार करके देखो कि इस समय पिताजी की दशा कैसी है? सारे अयोध्या के लोग कितने व्याकुल हैं? भाई भरत भी इस समय यहाँ उपस्थित नहीं हैं। इस प्रकार जब सारी अयोध्या पीड़ा और दुःख से ग्रसित है, तो तुम्हें कर्तव्य और धर्म का पालन करना चाहिये।
माता-पिता के चरणों की सेवा करना पुत्र का सबसे बड़ा धर्म है और प्रजा की सेवा करना, पालन करना राजा का सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य है। जिस राजा के राज्य में प्रजा दुःखी रहती है, वह तो नरक में जाता है-
अस जियँ जानि सुनहु सिख भाई।
करहु मातु पितु पद सेवकाई।।
भवन भरतु रिपुसूदन नाहीं।
राउ वृद्ध मम दुखु मन माहीं।।
मैं बन जाउँ तुम्हहि लेइ साथा।
होइ सबहि बिधि अवध अनाथा। 2/70/1-3
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी।
सो नृप अबसि नरक अधिकारी।। 2/70/6
लक्ष्मण! मैं जानता हूँ कि तुम कायर और डरपोक नहीं हो, पर इस समय प्रेम और भाबुकता के वश में होकर मेरे साथ वन जाना चाहते हो। तुम विचार करके देखो और यहाँ रहकर माता-पिता और प्रजा का पालन करो, यही श्रेष्ठ कर्तव्य और धर्म है-
रहहु करहु सब कर परितोषू।
नतरु तात होइहि बड़ दोषू।। 2/70/5
हे भाई! तुम यह भार उठाओ और यदि तुम भावुकता के कारण इससे भागने का प्रयास करोगे तो लोग तुम्हें वीर नहीं मानेंगे! भगवान् राम ने जो उपदेश दिया वह शास्त्रों के अनुकूल ही है। भगवान् कृष्ण भी गीता में ऐसा ही उपदेश देते हुए दिखायी देते हैं। वर्णन आता है कि प्रारंभ में, अपने सगे-संबंधियों और गुरु आदि को युद्धक्षेत्र में उपस्थित देखकर, भगवान् कृष्ण से अर्जुन ने जब यह कहा कि मैं भले ही भिक्षा माँग कर खा लूँगा पर युद्ध नहीं करूँगा तो उस समय भगवान् यही कहते हैं- अर्जुन! तुम्हारी यह वृत्ति तो नपुंसकता की वृत्ति है-
क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वयूयुपपद्यते।
और इस प्रकार की कायरता तुम्हारे लिये उचित नहीं है, अत: इसका परित्याग करो।
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