धर्म एवं दर्शन >> लोभ, दान व दया लोभ, दान व दयारामकिंकर जी महाराज
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मानसिक गुण - कृपा पर महाराज जी के प्रवचन
मानव जीवन की एक समस्या यह है कि जिन वृत्तियों की 'विकार' कहकर निंदा की गयी है, उनसे मनुष्य का जीवन इस प्रकार जुड़ा हुआ है कि उनके बिना संसार का काम चल ही नहीं सकता। 'काम' के द्वारा ही सृष्टि का निर्माण होता है, अत: यदि 'काम' न हो तो यह सृष्टि ही नष्ट हो जायगी। 'लोभ' के द्वारा मनुष्य को कर्म और पुरुषार्थ करने की प्रेरणा मिलती है, जिससे समाज में निर्माण होता है, आविष्कार होते हैं और इनसे समाज आगे बढ़ता है। अन्याय या अनुचित कार्य के विरुद्ध क्रोध करके ही, उसे मिटाने की चेष्टा की जा सकती है। इस प्रकार एक ओर तो ये विकार अनिवार्य रूप से मनुष्य-जीवन के निर्माण और प्रगति से जुड़े हुए दिखायी देते हैं, वहीं दूसरी ओर यह भी दिखायी देता है कि यदि व्यक्ति इनकी मात्रा का ध्यान न रख सके, जैसा कि बहुधा व्यक्ति नहीं रख पाता, तो उस स्थिति में ये विकार व्यक्ति के लिये अकल्याणकारी और कष्टप्रद हो जाते हैं।
भगवान् कृष्ण गीता में काम की महत्ता बताते हुए यही कहते हैं कि धर्मानुकूल अर्थात् मर्यादित काम मैं ही हूँ। क्रोध के बारे में भी यही बात कही जा सकती है कि यदि क्रोध विवेकजन्य हो, कल्याण की भावना से प्रेरित हो, तो वह भी उपयोगी हो सकता है। क्योंकि जिस क्रोध से विवेक समाप्त हो जाय, वह तो अनर्थ की ही सृष्टि करेगा। ऐसा आवेश, जिससे सामनेवाला व्यक्ति भी प्रतिक्रिया में क्रोधित हो जाय, उससे तो बुराई का क्रम बढ़ता ही जायेगा। इसलिए क्रोध भी विवेकजन्य हो तो वह व्यक्ति और समाज के लिये लाभप्रद हो सकता है। इसी प्रकार यदि लोभ भी सद्कर्म की प्रेरणा दे तो यह उसका सदुपयोग है।
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