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क्रोध

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9813
आईएसबीएन :9781613016190

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मानसिक विकार - क्रोध पर महाराज जी के प्रवचन


किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर, परंपरया हम उस व्यक्ति के नाम में 'स्वर्गीय' शब्द का प्रयोग करते हैं। अब, किसी ने जाकर देखा तो है नहीं कि वे स्वर्ग में 'हैं या नरक में हैं, पर सम्मान देने के लिये ऐसा कहा जाता है। गोस्वामीजी भी स्वर्ग और नरक का नाम लेते हैं पर एक भिन्न बात कहते हैं। उन्होंने कहा कि भई! मैं स्वर्ग और नरक की बात नहीं जानता-

को जानै को जइहै सुरपुर कौन नरक परधाम को। वि. प. 155


इसलिए मरने के बाद कौन कहाँ जायेगा, उसकी बात मैं नहीं करता। उनसे पूछा गया कि फिर भक्ति की क्या आवश्यकता है?

उन्होंने कहा -

तुलसी बहुत भलो लागत जग जीवन राम गुलाम को। वि.प. 155


भक्त तो इसी जीवन में धन्य हो जाता है। क्योंकि उसे यहीं आनंद और रस का अनुभव हो जाता है। कहा जा सकता है कि इस जीवन में ही अच्छे कार्य करने की प्रेरणा के लिये प्रलोभन के रूप में स्वर्ग को तथा दुर्वृत्तियों से मिलने वाले दण्ड के भय के रूप में नरक को देख सकते हैं। इस प्रकार समाज में व्यवस्था बनी रहेगी। व्यक्ति मनमाने आचरण करने से डरेगा और दुराचार की वृत्ति पर अंकुश लगेगा। आप जानते ही हैं कि अनेक ऐसे रोग हैं जो मनुष्य के दुराचार से जन्म लेते हैं, प्रकृति ने उन रोगों की सृष्टि नहीं की है। इसलिए मनुष्य की उच्छृंखलता की वृत्ति को सही दिशा देने के लिये दण्ड की भी आवश्यकता है। यही बात भगवान् शंकर ने भुशुण्डिजी से कही। भगवान् शंकर कहते हैं कि -

जौं नर्हि दंड करौं खल तोरा।
भ्रष्ट होइ श्रुति मारग मोरा।। 7/106/4


यदि मैं तुम्हें दण्ड न दूँ तो उसका परिणाम यही होगा कि शास्त्र ने जो एक व्यवस्था बतायी है वह नष्ट हो जायेगी। इसलिए मैं तुम्हें दण्ड दे रहा हूँ। तुम गुरुजी के आने पर भी जानबूझकर बैठे रहे, उठने का निश्चय भी नहीं किया। इस अपराध के लिये मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि तुम अजगर हो जाओ। तुम्हें दण्ड के रूप में अनेक जन्म भी लेने पड़ेंगे। भुशुण्डि जी शाप सुनकर डर के मारे काँपने लगे। वे जिनका पक्ष ले रहे थे और जिसके प्रति अपनी अनन्य निष्ठा का उन्हें अहंकार था उन्होंने ही दण्ड दे दिया, और उनके गुरुजी को भुशुण्डि पर दया आ गयी। उन्होंने भगवान् शंकर के चरणों में गिरकर बड़े करुण स्वर में उनकी स्तुति की। आप सब जानते ही हैं कि यह स्तुति-

नमामीशमीशान निर्वाण रूपं,
विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं। 7/107/1

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