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मानसिक विकार - क्रोध पर महाराज जी के प्रवचन
प्रत्येक जाति और देश उसी परम्परा को ढोने का प्रयास कर रहा है। किसी जाति ने किसी समय दूसरी जाति को उत्पीड़ित किया था, अत: उसका बदला लेने के लिये आज भी घृणा-वृत्ति को जीवित रखता है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र का प्रतिद्वन्द्वी है और अपनी श्रेष्ठता की सुरा पीकर अन्य राष्ट्रों के विरुद्ध संघर्ष करता है और इस तरह हिंसा-प्रतिहिंसा के चक्र को आगे बढ़ाता ही जाता है। घृणा और संघर्ष की ये प्रवृत्तियाँ मानव-मन में आदिम-काल से विद्यमान हैं। उन्हें उकसाना बहुत सरल है। इससे नेतृत्व प्राप्त कर लेना अत्यन्त सरल हो जाता है। किन्तु इसके द्वारा व्यक्ति और समाज को क्या प्राप्त होता है? यदि हम शान्त चित्त से विचार करें तो देखेंगे कि अशान्ति ही इसकी उपलब्धि है। इसी को देवर्षि नारद हवा के थपेड़ों से भटकती हुई नौका के दृष्टान्त से स्पष्ट करते हैं। समुद्र या नदी का जल सहज भाव से अशान्त होता है और कहीं तूफान आ जाय तो कहना ही क्या है? मनुष्य का मन भी जल की ही भांति चंचल है। बुद्धि की नौका पर बैठकर व्यक्ति उस चंचलता के माध्यम से नौका को खेता हुआ लक्ष्य की ओर बढ़ता है। किन्तु उसी समय यदि सामूहिक द्वेष की आँधी चल पड़े तो नौका पर आरूढ़ उस यात्री की दशा की कल्पना की जा सकती है। व्यक्ति और समाज के जीवन में इस आँधी की सृष्टि करने में इतिहास का बहुत बड़ा भाग है।
देवर्षि नारद का श्री वेदव्यास के प्रति यही व्यंग्य था कि तुमने महाभारत-जैसे विशाल इतिहास की सृष्टि करके समाज को क्या देना चाहा है? देवर्षि का उद्देश्य महाभारत के ज्ञान और दर्शन की अवहेलना करना नहीं था। इस क्षेत्र में महाभारत के अद्वितीय अवदान की सराहना उन्होंने प्रारम्भ में ही कर दी थी। किन्तु महाभारत के जातीय युद्ध की गाथा और व्यक्तियों के इतिहास को लेकर वे प्रश्न-चिह्न अवश्य प्रस्तुत करते हैं। इस दृष्टि से महाभारत की उपयोगिता संदिग्ध है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी इस पर एक कटाक्ष किया, ''मैं तो चाहता हूँ कि लोग रामायण की शिक्षा का अनुगमन करें, किन्तु समाज तो महाभारत का अनुकरण कर रहा है। मुझ-जैसे दुष्ट की कौन सुने? कलियुग का स्वभाव ही कुचाल से प्रेम करना है -
रामायन सिख अनुहरत, जग भयो भारत रीति।
तुलसी सठ की को सुनै, कलि कुचाल पर प्रीति।।
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