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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809
आईएसबीएन :9781613015797

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

गुन्जन- पल्लव के बाद कवि की आत्मा का उन्मुक्त गुञ्जन 'गुञ्जन' में गुञ्जरित हुआ है। इसमें संवत् १९९३ से सं० २००१ तक की कविताएँ हैं। इस बीच कवि को अनेक प्रकार के कष्टों का सामना करना पड़ा। इनके मझोले भाई भारी कारोबार में ९२००) कर्ज छोड़कर चले गये। पिता ने अपनी सम्पत्ति बेचकर ऋण तो चुका दिया पर अगले ही वर्ष वे भी स्वर्ग सिधार गये। एक ओर भयंकर आर्थिक संकट और दूसरी ओर मानसिक चिन्ताओं ने कवि को घेर कर उसके स्वास्थ्य को नष्ट कर डाला। इन सब दुःखों का कवि के जीवन व काव्य पर गहरा प्रभाव पड़ा। अब तक वह सुख की गोद में पला था इसलिए वह दुःख का अनुभव न कर पाया था पर अब दुःख झेलकर सुख-दुःख दोनों के महत्व को समझ गया। और उसके मुख से निकल पड़ा-

मैं नहीं चाहता चिर सुख, मैं नहीं चाहता चिर दुख,
जग पीड़ित है अति दुख से जग पीड़ित है अति सुख से।
मानव-जग में बँट जावे' दुख सुख से औ, सुख दुख से।।

इस प्रकार कवि ने सुख-दुःख-सम्बन्धी १५ गीत गाये हैं। स्वस्थ होने पर कवि के हृदय में अवसाद के स्थान पर आशा का प्रकाश फैलने लगा और उस आशा से कवि का प्रणयोल्लास विकसित हो उठा। 'भावी पत्नी के प्रति' आदि कविताओं में प्रकृति का सारा माधुर्य प्रेयसी की सुषमा का विस्तार प्रतीत होता है। गुञ्जन का गंगा-वर्णन विश्व की प्राकृतिक सौन्दर्य सम्बन्धी कविताओं में अपना विशेष स्थान रखता है।

ज्योत्सना- यह कवि के स्वप्न संसार अथवा उनके मानवतावाद को मूर्त्त रूप देने वाला पाँच अंकों का नाटक है। संसार में सर्वत्र संदेह, अविश्वास और घातक तोड़-फोड़ का बोलबाला देखकर इन्दु अपने राज्य की बागडोर अपनी रानी ज्योत्स्ना को दे देता है जो स्वर्ग से भू पर आकर पवन और सुरभि अथवा स्वप्न व कल्पना की सहायता से संसार में नवीन स्वर्गीय सौन्दर्य और नवीन आलोक में जीवन का एक रमणीय आदर्श स्थापित कर देती है।

युगान्त- इसकी अधिकतर रचनाएँ संवत् १९९२ और ९३ में लिखी गई हैं। इसमें कवि सुन्दर के साथ सत्य और शिव का भी उपासक हो गया है। युगान्त एक प्रकार से छायावाद-युग के अन्त के साथ- ही-साथ प्रगति-युग के प्रारम्भ की भूमिका भी है। इसके प्रथम गीत में ही-

गा कोकिल बरसा पावक कण।
नष्ट भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन।।

कहकर कवि जड़वाद से जर्जरित मानवता का परित्राण चाहता है। इस समय तक भारतीय समाज पर गाँधी जी और उनके असहयोग-आन्दोलन का पर्याप्त प्रभाव छा गया। अत: इसमें गाँधी जी तथा गाँधीवाद के सम्बन्ध में भी अनेक कविताएँ आ गई हैं।

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