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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809
आईएसबीएन :9781613015797

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र

जन्म- भारतेन्दु जी का जन्म काशी के इतिहास-प्रसिद्ध सेठ अमीचंद के वंशज लाला गोपालचंद्र उपनाम गिरधरदास के घर भाद्रपद शुक्ला सप्तमी सं० १९०७ को हुआ। इनके एक भाई और दो बहनें थीं। 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' के अनुसार आपकी प्रतिभा का विकास बाल्यकाल में ही हो गया था। आप ऐसे चंचल व प्रतिभाशाली बालक थे कि पाँच वर्ष की अवस्था में ही दोहे बनाने लग गये थे।

लै ठयौड़ा ठाड़े भये श्री अनिरुद्ध सुजान।
बानासुर की सैन को हनन लगे भगवान्।।

आपने पाँच वर्ष की छोटी-सी अवस्था में ही उपर्युक्त दोहा बनाकर पिता जी को विस्मित कर दिया। आपके पिता. श्री गोपाल चन्द्र जी भी हिंदी के एक अच्छे कवि थे। कविता में यह अपना उपनाम गिरधर रखते थे। (स्मरण रहे कि ये गिरधर प्रसिद्ध कवि गिरधरराय से भिन्न हैं।) इस प्रकार आपको कवित्व-शक्ति पैतृक परम्परा के रूप में प्राप्त हुई थी।

पाँच वर्ष की छोटी-सी अवस्था में ही आपको मातृ-सुख से वंचित होना पड़ा और दस वर्ष की अवस्था में आपके पिता जी का भी देहान्त हो गया। इस प्रकार इसी समय जहाँ एक ओर आपका मातृ-पितृ सुख छिन गया वहां बड़ी भारी पैतृक सम्पत्ति भी आपके हाथों में आ गई। माता-पिता की मुत्पु के कारण ग्यारह वर्ष की अवस्था में ही आपका स्कूल जाना बन्द हो गया। अब आप तीर्थयात्रा के लिए निकल पडे। इस तीर्थयात्रा से जहाँ आपको अन्य अनेक लाभ हुए वहाँ मराठी, गुबराती, बँगला आदि प्रान्तीय भाषाओं का ज्ञान भी अनायास ही प्राप्त हो गया। चौदह वर्ष की अवस्था में आपका विवाह हो गया।

स्वभाव और व्यक्तित्व- आप वास्तव में एक अत्यन्त उदार-प्रकृति और शाही तबियत के कलाकार थे। देश, जाति, राष्ट्र, समाज, साहित्य और कला के लिए आपका खजाना सदा खुला रहता था। जिस बात की धुन जँच गई उसके लिए पैसे की कमी नहीं रहती थी। वास्तव में भारतेन्दु जी का जीवन एक दिव्य पुरुष-जैसा था, लाखों की सम्पत्ति को आपने बात-की-बात में लुटा दिया। पैतीस वर्ष की छोटी-सी अवस्था में हिन्दी के लिए जैसी महत्वपूर्ण सेवा आपने की वैसी सम्भवत: अन्य किसी भी हिंदीसेवी ने नहीं की होगी। भारतेन्दु जी के लिए हम निःसंकोच भाव से कह सकते हैं कि वे हिन्दी के लिए ही जीवित रहे, वे हिंदी को नवजीवन देने के लिए एक युगपुरुष के रूप में अवतीर्ण हुए थे।

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