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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809
आईएसबीएन :9781613015797

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

विवाह तथा गृह-त्याग-गोस्वामी जी का विवाह अवश्य हुआ था-ऐसा सर्वसम्मत मत है, पर उनकी पत्नी का नाम रत्नावली ही था, इसमें सब विद्वान् एकमत नहीं हैं। कुछ विद्वान् उनके तीन विवाह भी मानते हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि वे अपनी तीसरी पत्नी रत्नावली के प्रति इतने अधिक आकृष्ट थे कि एक बार उसके मायके चले जाने पर वे भी पीछे-पीछे जा पहुँचे। मार्ग में सावन-भादों की बहती हुई नदियों को, मुर्दे पर बैठ कर पार किया और खिड़की से लटकते हुए साँप को पकड़ कर स्त्री के कमरे में जा पहुँचे। गोस्वामी जी के इस अंध-प्रेम को देख कर-

लाज न लागत आपको, दौरे आयहु साथ।
धिक धिक ऐसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ।।
अस्थि-चर्ममय देह मम, ता मैं जैसी प्रीति।
तैसी जो श्रीराम महँ, होति न तौ भवभीति।।

इन शब्दों के द्वारा ऐसी मधुर फटकार बताई कि गोस्वामी जी ने तत्काल विरक्त होकर गृह-त्याग किया।

वृद्धावस्था और निधन- गोस्वामी जी की वृद्धावस्था काशी में बीती। संवत् सोलह सौ पचहत्तर के लगभग काशी में भयंकर महामारी फैली, जिससे आपके हृदय में कड़ी चोट लगी। काशी की इस दुर्दशा का चित्र कवितावली के अनेक पदों में गोस्वामी जी ने किया है। इसी समय आपको बाहुपीड़ा ने आ दबाया। इस बाहुपीड़ा का उल्लेख भी  'कवितावली' के अन्तिम पदों या 'हनुमानबाहुक' में हुआ है। पर इस समय तक गोस्वामी जी की प्रतिभा अपना अपूर्व प्रकाश दिखा चुकी थी। उनका ज्ञान किसी भी अंश में कुण्ठित न हो पाया था। यहाँ तक कि उन्होंने एक पद में अपने प्रयाण-समय का चित्र भी अंकित किया है। इस प्रकार भारत का यह महान् उद्धारक संवत् १६८० में श्रावण शुक्ला तृतीया शनिवार को एक सौ छब्बीस वर्ष की आयु में स्वर्ग सिधार गया। जैसा कि निम्न दोहे से स्पष्ट है-

संवत् सोरह सै असी, असी गंग के तीर।
सावन स्यामा तीज शनि, 'तुलसी' तजे शरीर।।

गोस्वामी जी के परम मित्र मदैनी के ठाकुर टोडर के वंशज अब तक भी श्रावण कृष्णा तृतीया को ही गोस्वामी जी के नाम पर सीधा देते हैं। अत: श्रावण कृष्णा तृतीया ही गोस्वामी जी की प्रामाणिक निधनतिथि है।

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"हिंदी साहित्य का दिग्दर्शन" समय की आवश्यकताओं के आलोक में निर्मित पुस्तक है जोकि प्रवाहमयी भाषा का साथ पाकर बोधगम्य बन गयी है। संवत साथ ईस्वी सन का भी उल्लेख होता तो विद्यार्थियों को अधिक सहूलियत होती।