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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809
आईएसबीएन :9781613015797

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

सूरसागर- सूर-सागर के बारह स्कन्ध है। सूर-सागर का आधार श्रीमद्‌भागवत है। किन्तु यह श्रीमद्‌भागवत का अनुवाद नहीं है और न ही इसमें श्रीमद्‌भागवत के समान कथाओं का क्रम-विन्यास ही है। सूर-सागर में भी दशम स्कन्ध ही विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस स्कन्ध में कृष्ण-लीलाओं का वर्णन है जिनके चित्रण में सूरदास जी का हृदय विशेष रूप से रमा है। अकेले दशम स्कन्ध में ही ३६३२ पद हैं जो अन्य स्कन्धों के पदों की सम्पूर्ण संख्या से छै गुना है। वास्तव में यही स्कन्ध है, शेष तो शाखाओं के समान हैं। सूर-सागर में सूर की मौलिकता असन्दिग्ध है। श्रीमदभामवत् से केवल कथा का आधार ग्रहण किया है। शेष सब कुछ सूरदास का अपना है। डा० जनार्दन मिश्र के शब्दों में सूर-सागर भागवत का वैसा ही अनुवाद हो सकता है जैसा कि अभिज्ञान-शाकुन्तल, किरातार्जुनीय और शिशुपालवध महाभारत के उपाख्यानों के अनुवाद हैं। डा० धीरेन्द्र वर्मा ने श्रीमद्‌भागवत् के अध्यायों और सूर-सागर के पदों की तालिका देकर यह निष्कर्ष निकाला है कि जहाँ भागवत में ३३५ अध्यायों में ९० अध्याय कृष्णावतार से सम्बन्ध रखते है, वहाँ सूर-सागर के ४०३२ पदों में से ३६३२ पदों में कृष्ण-लीला का गान है। शेष ४०० पदों में अन्य अवतारों की कथा और विनय के पद हैं। विनय के पद पहले स्कन्ध में हैं और वे सबसे अधिक हैं। उनकी संख्या २१९ है। कृष्ण-लीलाके दो अंश हैं, एक ब्रज-लीला दूसरी द्वारिका-लीला। भागवत में इन दोनों लीलाओं को समान महत्व दिया गया ई। ९० अध्यायों में से ४९ अध्यायों में ब्रज की लीला है और ४१ अध्यायों में द्वारिका की लीला है किन्तु सूर-सागर में ब्रज की लीला को ही महत्व दिया गया है और उसमें कृष्णा-लीला के ३६३२ पदों मंर से ३४९४ ब्रज और मथुरा जी की लीला के हैं और १३८ उत्तरकालीन लीला से सम्बन्धित हैं। कथा का आधार भागवत जरूर है किन्तु सूर ने अपने ढंग से लिया है।

इससे यह स्पष्ट है कि भागवत से सूर ने केवल कथा-क्रम को ही लिया है, जिनमें से अधिकांश कथाओं को वे अति संक्षेप में कह गये हैं। सूर-सागर के प्रधान विषय कृष्ण की बाल-लीलाएँ, कृष्ण की राधा एवं गोपियों के साथ प्रेम-लीलाएं, गोपी-विरह एवं भ्रमरगीत ही हैं। सूर-सागर का अनुमानत: नव्वे प्रतिशत भाग इन लीलाओं के चित्रण में ही प्रयुक्त हुआ है। इन कथाओं का वर्णन भागवत में संक्षेप में ही किया गया है। भागवत के समान सूर-सागर का विभाजन बारह स्कन्धों में किया गया है, परन्तु भागवत के समान यह प्रबन्ध-काव्य नहीं है। इससे सिद्ध है कि सूरसागर सूरदास की मौलिक रचना है, छायानुवाद भी नहीं। सूर-सागर की पदसंख्या के सम्बन्ध में दो जन-श्रुतियाँ प्रसिद्ध हैं-एक के अनुसार सूर ने एक लाख पदों की रचना की और दूसरी के अनुसार सवा लाख पदों की। गोस्वामी गोकुलनाथ जी 'चौरासी वैष्णवों की वार्ता' में इस प्रकार लिखते हैं-'और सूरदास ने सहस्रावधि पद किये हैं ताको सागर कहिए सो जगत प्रसिद्ध भये।'' यदि लाख या सवा लाख पद होते तो गोस्वामी जी 'सहस्रावधि' न लिखकर वही संख्या क्यों न लिखते? सूर-सागर की एक भी प्राप्त प्रति ऐसी नहीं, जिसमें दस हजार से अधिक पद पाये जाते हों। इससे यही मानना उचित है कि अधिक संख्याद्योतन के लिए ही लाख या सवा लाख शब्दों का प्रयोग किया गया होगा। सूर-सागर एक संग्रहग्रन्थ है जिसमें रचना पदों में की गई है। ये पद गेय हैं। राग एवं रागिनियाँ है। इनकी रचना पिंगल छन्दों में की गई है; अत: सूर-सागर एक बृहद् गीतिकाव्य है।

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