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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन

मोहनदेव-धर्मपाल

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :187
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9809
आईएसबीएन :9781613015797

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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)

संस्कार-युग

भारतेन्दुजी तथा उनकी मंडली के लेखकों ने जिस धूमधाम के साथ हिन्दी-गद्य की प्रतिष्ठा की वह सदा स्मरणीय रहेगी, किन्तु उनके गद्य में बाल-सुलभ चंचलता व विमोहकता के साथ बालक की तुतलाहट, भाषा के रूप की अस्थिरता और व्याकरण की अशुद्धियाँ आदि अनेक त्रुटियाँ हैं। अब गद्य को प्रौढ़ बनाने के लिए इन त्रुटियों का निराकरण आवश्यक था। भारतेन्दुजी में एक त्रुटि यह भी थी कि वे गद्य खड़ीबोली में और पद्य ब्रजभाषा में लिखते थे। पद्य और गद्य की भाषा एक ही हो जानी चाहिए थी। इसके अतिरिक्त भारतेन्दु-मंडली के लेखकों के धीरे-धीरे उठ जाने पर उनके स्थान पर नये लेखक भी नहीं आ रहे थे। इस प्रकार इस समय हिन्दी-साहित्य की अवस्था बड़ी विचित्र हो रही थी। ऐसे ही समय में हिन्दी साहित्य में पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी के रूप में एक दिव्य शक्ति का आविर्भाव हुआ।

महावीरप्रसाद द्विवेदी- आपका जन्म दौलतपुर (जिला रायबरेली) में संवत् १९२७ में और देहान्त संवत् १९९५ में हुआ। आपने संवत् १९६० में 'सरस्वती' मासिक पत्रिका का संपादन-भार सँभाला। तब से लेकर आपने अपने जीवन का एक-एक क्षण हिन्दी भाषा की सेवा में लगा दिया। सर्वप्रथम आपने व्याकरण-सम्बन्धी त्रुटियाँ दूर कर हिन्दी-गद्य को सुसंस्कृत व परिष्कृत रूप दिया। खड़ीबोली में पद्य के प्रयोग को प्रोत्साहित किया। अनेक नये कलाकारों को साहित्य-सेवा के लिए प्रस्तुत किया। राष्ट्रकवि श्री मैथिलीशरण गुप्त आदि अनेक कलाकार आप ही की प्रेरणा से उच्च कोटि के साहित्य- निर्माण में प्रवृत्त हुए। सरस्वती के लेखों व संक्षिप्त-हिन्दी- महाभारत के द्वारा आपने गद्य के जिस रूप की प्रतिष्ठा की वही रूप सदा के लिए सुस्थिर हो गया। इस प्रकार द्विवेदीजी ने हिन्दी की जो महत्वपूर्ण सेवा की वह स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगी। इस सेवा के कारण ही आपको 'आचार्य' के पद पर प्रतिष्ठित किया गया। द्विवेदीजी वास्तव में हिन्दी-जगत् के पितामह थे।

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