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प्रेमचन्द की कहानियाँ 41

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9802
आईएसबीएन :9781613015391

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग


ताहिर अली ने दुःखित अंदाज़ से कहा- ''भाईजान, मुझ पर रहम करो और एक पतिव्रता के साथ दगा करने के लिए मुझे मजबूर न करो। जो तुम कहते हो, वह मेरे मुँह से नहीं निकल सकता।''

प्रेमनाथ की आँखें डबडबा आई। इस मुल्ला के दिल में कितना दर्द, कितनी निश्छलता, कितनी हमदर्दी है। मौलवी साहब की तरफ़ एहसान-मंदाना निगाहों से देखकर बोले, ''जाइए, बुला लाइए। कह दीजिए, बदनसीब प्रेमनाथ यहीं है। तय तो कर चुका था कि. घरवालों को सूरत न दिखाऊँ। ऐसी जगह मरना चाहता था, जहाँ कोई आँसू बहाने वाला भी न हो, लेकिन ईश्वर को मेरी ऐसी शांतिपूर्ण मौत भी मंजूर न थी।''

कितना दर्दनाक दृश्य था। गोमती खड़ी थी। प्रेमनाथ उसके पैरों पर सर झुकाए हुए था और बावजूद गोमती की पुरजोर बचाव के सर न उठाता था। दोनों की आँखों से आंसुओ का सैलाब जारी था, जबान दोनों की बंद। जज्बात के तूफ़ान में अल्फाज डगमगाए हुए चलते थे, पर वाणी तक पहुँचते-पहुँचते डूब जाते थे।

आखिर गोमती ने सिसकते हुए कहा, ''तुम्हारी तबियत अब कैसी है? मौलवी साहब खत न लिखते तो मुझे खबर भी न होती। हम ऐसे ग़ैर हो गए!''

प्रेमनाथ ने सर उठाया और नम्रतापूर्ण लहजे में कहा- ''माफ़ करो गोमती, मेरी खता माफ़ करो। अपनी नादानी का खूब मज़ा चख चुका। इरादा तो यही था कि तुम्हें खबर न हो, और दुनिया से रुखसत हो जाऊँ। मगर तक़दीर में यह जिल्लत और शर्मिन्दगी बदी थी।''

गोमती बैठ गई और शौहर की आँखों से आँसू पोंछती हुई बोली- ''जिल्लत और शर्मिन्दगी कैसी? क्या तुम मुझे गैर समझते हो? मेरा ईश्वर जानता है कि मैं तुम्हें पहले जो समझती थी, वही अब समझती हूँ बल्कि उससे भी ज्यादा। दौलत का क्या गम? तक़दीर में होगी, फिर मिल रहेगी। मेरे लिए तुम्हारी खिदमत ही सबसे बड़ी दौलत है। सुहाग औरत के लिए सबसे बड़ी न्यामत है। तुमने मुझे छोड़ दिया था, लेकिन मैं तुम्हें क्यों कर छोड़ देती, मैं तो हमेशा के लिए तुम्हारी हूँ।''

प्रेमनाथ ने संदेहपूर्ण अंदाज़ से कहा- ''पर यह कैसे होगा, गोमती? हमारे दरमियान तो एक लोहे की दीवार खड़ी है। दुनिया मुझे मुसलमान कहती है, और मुसलमान समझती है। हालाँकि मैं सच्चे दिल से कहता हूँ मुझे इस्लाम से कभी आस्था न थी। मुझे मर जाना कबूल है, पर तुम्हें बदनाम नहीं कर सकता।''

इस ख्याल से प्रेमनाथ के दिल पर ठेस लगी और आँखों से आँसू जारी हो गए। एक लमहे के बाद उसने जब्त करके पूछा- ''एक बात और बतलाओगी? गोमती, सच कहना।''

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