लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 40

प्रेमचन्द की कहानियाँ 40

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9801
आईएसबीएन :9781613015384

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

420 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चालीसवाँ भाग


बितान की नीतिकुशलता अपनी चतुर सहगामिनी के सामने लोप हो जाती थी। वह सभी इसका उत्तर सोच ही रहे थे कि श्रीमतीजी बोल उठीं– दादा जी! अब समझाने-बुझाने से काम न चलेगा, सहते-सहते हमारा कलेजा पक गया। बेटे की जितनी पीर बाप को होगी, भाइयों को उतनी क्या, उसकी आधी भी नहीं हो सकती। मैं तो साफ कहती हूँ, गुमान का तुम्हारी कमाई में हक है, उन्हें कंचन के कौर खिलाओ और चाँदी के हिंडोले में झुलाओ। हममें न इतना बूता है, न इतना कलेजा। हम अपनी झोपड़ी अलग बना लेंगे। हां, जो कुछ हमारा हो, वह हमको मिलना चाहिए। बाँट-बखरा कर दीजिए। बला से चार आदमी हँसेंगे, अब कहाँ तक दुनिया की लाज ढोएँ।

नीतिज्ञ बितान पर इस प्रबल वक्तृता का असर हुआ, वह उनके विकसित और प्रमुदित चेहरे से झलक रहा था। उनमें स्वयं इतना साहस न था कि इस प्रस्ताव को इतनी स्पष्टता से व्यक्त कर सकते। नीतिज्ञ महाशय गंभीरता से बोले– जायदाद मुश्तरका मन्कूला या गैर मन्कूला आपके हीनहयात तकसीम की जा सकती है, इनकी नजीरें मौजूद हैं। जमींदार को साकितुल मिल्कियत करने का कोई इस्तहकाक नहीं है।

अब मन्दबुद्धि शान की बारी आयी, पर बेचारा किसान, बैलों के पीछे आँखें बन्द करके चलनेवाला, ऐसे गूढ़ विषय पर कैसे मुँह खोलता। दुविधा में पड़ा हुआ था। तब उसकी सत्यवक्ता धर्मपत्नी ने अपनी जेठानी का अनुसरण कर यह कठिन कार्य सम्पन्न किया। बोली– बड़ी बहन ने जो कुछ कहा है, उसके सिवा और दूसरा उपाय नहीं है। कोई तो कलेजा तोड़-तोड़कर कमाए, मगर पैसे-पैसे को तरसे, तन ढांकने को वस्त्र तक न मिलें और कोई सुख की नींद सोए और हाथ बढ़ा-बढ़ा के खाए, ऐसी अंधेर नगरी में अब हमारा निबाह न होगा।

शान चौधरी ने भी इस प्रस्ताव का मुक्त कंठ से अनुमोदन किया। अब बूढ़े चौधरी गुमान से बोले– क्यों बेटा, तुम्हें भी यही मंजूर है? अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। यह आग अब भी बुझ सकती है। काम सबको प्यारा होता है, चाम किसी को प्यारा नहीं होता। बोलो, क्या बोलते हो! काम-धंधा करोगे या अभी आँखें नहीं खुलीं।

गुमान में धैर्य की कमी नहीं थी। बातों को इस कान सुन, उस कान उड़ा देना उसका नित्यकर्म था। किन्तु भाइयों की इस ‘जनमुरीदी’ पर उसे क्रोध आ गया। बोला– भाइयों की जो इच्छा है, वह मेरे मन में भी लगी हुई है। मैं भी इस जंजाल से अब भागना चाहता हूँ। मुझसे न मजूरी हुई, न होगी, जिसके भाग्य में चक्की पीसना बदा हो, वह चक्की पीसे। मेरे भाग्य में तो चैन करना लिखा हुआ है, मैं क्यों अपना सिर ओखली में दूँ? मैं तो किसी से काम करने को नहीं कहता। आप लोग क्यों मेरे पीछे पड़े हैं? अपनी-अपनी फिक्र कीजिए; मुझे आध सेर आटे की कमी नहीं है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book