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प्रेमचन्द की कहानियाँ 40

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :166
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9801
आईएसबीएन :9781613015384

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का चालीसवाँ भाग


चौधरी ने परमात्मा को धन्यवाद दिया। फूले न समाए। कई सौ रुपये लगाकर कपड़े की दूकान खुलवा दी। गुमान के भाग जागे। तनजेब के चुननदार कुरते बनवाए, मलमल का साफा धानी रंग में रँगवाया। सौदा बिके या न बिके  उसे लाभ ही होता था। दूकान खुली है, दस-पाँच गाढ़े मित्र जमें हुए है, चरस के दम और खयाल की तानें उड़ रही हैं–
‘चल झटपट री, जमुना तट री, उड़ी नटखट री।’

इस तरह तीन महीने चैन से कटे। बाके गुमान ने खूब दिल खोलकर अरमान निकाले। यहां तक कि  सारी लागत लाभ हो गई। टाट के टुकड़े के सिवा और कुछ न बचा। बूढ़े चौधरी कुएँ में गिरने चले, भावजों ने घोर आन्दोलन मचाया– अरे राम! हमारे बच्चे और हम चीथड़ों को तरसें, गाढ़े का एक कुर्ता भी न नसीब हो और इतनी बड़ी दूकान निखट्टू का कफन बन गई। अब कौन मुँह लेकर घर में पैर रखेगा? किन्तु बाँके गुमान के तेवर जरा भी मैले न हुए। वही मुँह लिये वह घर में आया और फिर वही पुरानी चाल चलने लगा।

कानूनदाँ बितान उसके यह ठाट-बाट देखकर जल जाता। मैं सारे दिन पसीना बहाऊँ मुझे नयनसुख का कुर्ता भी न मिले, यह अपाहिज सारे दिन चारपाई तोड़े और यों बन-ठनकर निकले। ऐसे वस्त्र तो शायद मुझे ब्याह में भी न मिले होंगें। मीठे शान के हृदय में भी कुछ ऐसे ही विचार उठते थे। अन्त में जब यह जलन न सही गई और अग्नि भड़की, तो एक दिन कानूनदां बितान की पत्नी गुमान के सारे कपड़े उठा  लायी और उन पर मिट्टी का तेल उड़ेलकर आग लगा दी। ज्वाला उठी। सारे कपड़े देखते-देखते जलकर राख हो गए। गुमान रोते थे। दोनों भाई खड़े तमाशा देखते थे। बूढ़े चौधरी ने यह दृश्य देखा और सिर पीट लिया। यह द्वेषाग्नि है घर को जलाकर तब बुझेगी।

यह ज्वाला तो थोड़ी देर में शांत हो गई, परन्तु हृदय की आग ज्यों-की-त्यों दहकती रही। अंत में एक दिन चौधरी ने घर के सब मेम्बरों को एकत्रित किया और इस गूढ़ विषय पर विचार करने लगे कि बेड़ा कैसे पार हो। बितान से बोले– बेटा, तुमने आज देखा, बात-की-बात में सैकड़ों रुपये पर पानी फिर गया; अब इस तरह निर्वाह होना असम्भव है। तुम समझदार हो, मुकदमे-मामले करते हो, कोई ऐसी राह निकालो कि घर डूबने से बचे। मैं तो यह चाहता था कि जब तक चोला रहे, सबको समेटे रहूँ, मगर भगवान् के मन में कुछ और ही है।

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