लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 37

प्रेमचन्द की कहानियाँ 37

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9798
आईएसबीएन :9781613015353

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

158 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग


वृन्दा- रणजीतसिंह से।

प्रेमसिंह जमीन पर बैठ गया और वृन्दा की बातों पर गौर करने लगा, फिर बोला– वृन्दा, तुम्हें मौका क्योंकर मिलेगा?

वृन्दा- कभी-कभी धूल के साथ उड़कर चींटी आसमान तक पहुँचती है।

प्रेमसिंह- मगर बकरी शेर से क्योंकर लड़ेगी?

वृन्दा- इस तेगे की मदद से।

प्रेमसिंह- इस तेगे ने कभी छिपकर खून नहीं किया।

वन्दा- दादा, यह विक्रमादित्य का तेगा है। इसने हमेशा दुखियारों की मदद की है।

प्रेमसिंह ने तेगा लाकर वृन्दा के हाथ में रख दिया। वृन्दा उसे पहलू में छिपाकर जिस तरह से आयी थी उसी तरह चली गई। सूरज डूब गया था। पश्चिम के क्षितिज में रोशनी का कुछ-कुछ निशान बाकी था और भैंसें अपने बछडे को देखने के लिए चरागाहों से दौड़ती हुई आवाज से मिमियाती चली आती थीं और वृन्दा राजा को रोता छोड़कर शाम के अँधेरे डरावने जंगल की तरफ जा रही थी।

वृहस्पति का दिन था। रात के दस बज चुके है। महाराजा रणजीतसिंह अपने विलास-भवन में शोभायमान हो रहे हैं। एक सात बत्तियों वाला झाड़ रोशन हे। मानों दीपक-सुंदरी अपनी सहेलियों के साथ शबनम का घूँघट मुंह पर ड़ाले हुए अपने रूम में गर्व में खोई हुई है। महाराजा साहाब के सामने वृन्दा गेरुए रंग की साड़ी पहने बैठी है। उसके हाथ में एक बीन है, उसी पर वह एक लुभावना गीत अलाप रही है।

महाराज बोले- श्यामा, मैं तुम्हारा गाना सुनकर बहुत खुश हुआ, तुम्हें क्या इनाम दूँ?

श्यामा ने एक विशेष भाव से सिर झुकाकर कहा- हुजूर के अख्तियार में सब कुछ है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book