| कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 37 प्रेमचन्द की कहानियाँ 37प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग
प्रकाश ने भी त्योरी चढ़ायी, 'क्या डाकखाना हमने देखा नहीं है?' 
'अच्छा, तो अपना-अपना नाम सुनने के लिए तैयार हो जाओ।' 
सभी लोग फौजी-अटेंशन की दशा में निश्चल खड़े हो गये। 
'होश-हवाश ठीक रखना!' 
सभी पूर्ण सचेत हो गये। 
'अच्छा, तो सुनिए कान खोलकर इस शहर का सफाया है। इस शहर का ही नहीं, सम्पूर्ण भारत का सफाया है। अमेरिका के एक हब्शी का नाम आ गया।' 
बड़े ठाकुर झल्लाये, 'झूठ-झूठ, बिलकुल झूठ!' 
छोटे ठाकुर ने पैंतरा बदला क़भी नहीं। तीन महीने की तपस्या यों ही रही? वाह?' 
प्रकाश ने छाती ठोंककर कहा, 'यहाँ सिर मुड़वाये और हाथ तुड़वाये बैठे हैं, दिल्लगी है!' 
इतने में और पचासों आदमी उधर से रोनी सूरत लिये निकले। ये बेचारे भी डाकखाने से अपनी किस्मत को रोते चले आ रहे थे। मार ले गया, अमेरिका का हब्शी! अभागा! पिशाच! दुष्ट! अब कैसे किसी को विश्वास न आता? 
बड़े ठाकुर झल्लाये हुए मन्दिर में गये और पुजारी को डिसमिस कर दिया इसीलिए तुम्हें इतने दिनों से पाल रखा है। हराम का माल खाते हो और चैन करते हो। छोटे ठाकुर साहब की तो जैसे कमर टूट गयी। दो-तीन बार सिर पीटा और वहीं बैठ गये; मगर प्रकाश के क्रोध का पारावार न था। उसने अपना मोटा सोटा लिया और झक्कड़ बाबा की मरम्मत करने चला। माताजी ने केवल इतना कहा, 'सभी ने बेईमानी की है। मैं कभी मानने की नहीं। हमारे देवता क्या करें? किसी के हाथ से थोड़े ही छीन लायेंगे?' 
			
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