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प्रेमचन्द की कहानियाँ 37

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9798
आईएसबीएन :9781613015353

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का सैंतीसवाँ भाग


पुजारी ने उसी मुस्तैदी से कहा, 'आपकी भी फते है।'

बड़े ठाकुर श्रद्धा से डूबे भजन गाते हुए मन्दिर से निकले -- 'प्रभुजी, मैं तो आयो सरन तिहारे, हाँ प्रभुजी!'

एक मिनट में छोटे ठाकुर साहब भी मन्दिर से गाते हुए निकले -- 'अब पत राखो मोरे दयानिधान तोरी गति लखि ना परे!'

मैं भी पीछे निकला और जाकर मिठाई बाँटने में प्रकाश बाबू की मदद करना चाहा; उन्होंने थाल हटाकर कहा, आप रहने दीजिए, मैं अभी बाँटे डालता हूँ। अब रह ही कितनी गयी है? मैं खिसियाकर डाकखाने की तरफ चला कि विक्रम मुस्कराता हुआ साइकिल पर आ पहुँचा। उसे देखते ही सभी जैसे पागल हो गये। दोनों ठाकुर सामने ही खड़े थे। दोनों बाज की तरह झपटे। प्रकाश के थाल में थोड़ी-सी मिठाई बच रही थी। उसने थाल जमीन पर पटका और दौड़ा। और मैंने तो उस उन्माद में विक्रम को गोद में उठा लिया; मगर कोई उससे कुछ पूछता नहीं, सभी जय-जयकार की हाँक लगा रहे हैं।

बड़े ठाकुर ने आकाश की ओर देखा, 'बोलो राजा रामचन्द्र की जय!'

छोटे ठाकुर ने छलाँग मारी, 'बोलो हनुमानजी की जय!'

प्रकाश तालियाँ बजाता हुआ चीखा, 'दुहाई झक्कड़ बाबा की!'

विक्रम ने और जोर से कहकहा, मारा और फिर अलग खड़ा होकर बोला, 'जिसका नाम आया है, उससे एक लाख लूँगा! बोलो, है मंजूर?'

बड़े ठाकुर ने उसका हाथ पकड़ा-- 'पहले बता तो!'

'ना! यों नहीं बताता।'

'छोटे ठाकुर बिगड़े ... महज बताने के लिए एक लाख? शाबाश!'

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