लोगों की राय

कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9797
आईएसबीएन :9781613015346

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

297 पाठक हैं

प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग


आधी रात जा चुकी थी, किंतु हरिविलास अभी तक करवटें बदल रहे थे। मेज पर लैम्प जल रहा था। वह उसी लाल फीते से बँधे हुए पत्र को बारबार देखते और विचारों में डूब जाते थे। वह लाल फीता उन्हें न्याय और सत्य के खून में रंगा हुआ जान पड़ता था। किसी घातक की रक्तमय आँखें थीं जो उनकी ओर घूर रही थीं, या एक ज्वालाशिखा जो उनकी आत्मा और सत्यज्ञान को निगल जाने के लिए उनकी ओर लपकी चली आती थी। वह सोच रहे थे अब तक मैं समझता था कि मेरा कर्त्तव्य न्याय पर चलना है। अब मालूम हुआ कि यह मेरी भूल थी। मेरा कर्त्तव्य न्याय का गला घोंटना है, नहीं तो मुझे ऐसे आदेश क्यों मिलते? क्या समाचार-पत्रों का पढ़ना भी कोई अपराध है? क्या दीन किसानों की रक्षा करना भी कोई पाप है? मैं ऐसा नहीं समझता। मुझे उन साधु-संन्यासियों पर कड़ी दृष्टि रखने का हुक्म दिया गया है जो धर्मोपदेश करते हुए दिखाई दें। यही नहीं, मुझे यह भी देखना चाहिए कि कौन गजी गाढ़े के कपड़े पहने हुए हैं, किस के सिर पर कैसी टोपी है, उस टोपी पर कैसी छाप लगी हुई है। चरखा चलानेवालों पर भी नज़र रखनी चाहिए। मुझे उन लोगों के नाम भी अपने रोज़नामचे में दर्ज करने चाहिए जो राष्ट्रीय पाठशालाएँ खोलें, जो देहातों में पंचायतें बनाएँ, जो जनता को नशे की चीज़ें त्याग करने का उपदेश करें। इस आज्ञा के अनुसार वह भी राजविद्रोही हैं जो लोगों में स्वास्थ्य के नियमों का प्रचार करें, ताऊन और हैजे के प्रकोप में जनता की रक्षा करें, उन्हें मुफ्त दवाएँ दें। सारांश यह कि मुझे जाति के सेवकों का, हितैषियों का शत्रु बनना चाहिए, इसलिए कि मैं भी शासन का एक अंग हूँ।

उन्होंने एक बार फिर लाल फीते की ओर देखा। हाँ, तो इस दशा में मेरा कर्त्तव्य क्या है? अपनी जाति का साथ दूँ या विजातीय सरकार का? इस समस्या का कारण यही है कि हमारे शासक विजातीय हैं और उनका स्वार्थ प्रजा के हित से भिन्न है। वह अपनी जाति के स्वार्थ के लिए, गौरव के लिए, व्यापारिक उन्नति के लिए यहाँ के लोगों को अनन्त काल तक इसी दशा में रखना चाहते हैं। इसीलिए प्रजा के राष्ट्रीय भावों को जागते देखकर यह उनको दबाने पर तुल जाते हैं। उन्हें वह सरल व्यवस्थाएँ भी आपत्तिजनक जँचने लगती हैं, जिन्हें प्रजा अपने आत्मसुधार के लिए करती है। नहीं तो क्या मद्यत्याग के उपदेश भी सरकार की आँखों में खटकते? शासन का मुख्य धर्म है प्रजा की रक्षा, न्याय और शांति का विचार। अब तक मैं समझता था कि सरकार इस कर्त्तव्य को सर्वोपरि समझती है, इसीलिए मैं उसका भक्त था। जब सरकार अपने धर्मपथ से हट जाती है तो मेरा धर्म भी यही है कि उसका साथ छोड़ दूँ। अपने स्वार्थ के लिए देश का द्रोही नहीं बन सकता। सरकार से मेरा थोड़े दिनों का नाता है, देश से जन्म भर का। क्या इस अस्थायी अधिकार के गर्व में अपने स्थायी संबंध को भूल जाऊँ? इस अधिकार के लिए अब मुझे देश का शत्रु बनना पड़ेगा। क्या देश को अपने स्वार्थ पर न्यौछावर कर दूँ। एक तो वह हैं जो देश-सेवा पर आत्मसमर्पण कर देते हैं; उसके लिए नाना प्रकार के कष्ट झेलते हैं। एक मैं अभागा हूँ जिसका काम यह है कि उन देशसेवकों की जान का गाहक बनूँ लेकिन यह संबंध तोड़ दूँ तो निर्वाह कैसे हो? जिन बच्चों को अब तक सभी सुख प्राप्त थे, उन्हें अब दरिद्रता का शिकार बनना पड़ेगा। जिस परिवार का पालन-पोषण अब तक अमीरों के ढंग पर होता था, उसे अब रो-रोकर दिन काटने पड़ेंगे। घर की जायदाद मेरी शिक्षा की भेंट हो चुकी, नहीं तो कुछ खेती-बारी ही करके गुजर करता। वही तो मेरा खानदानी पेशा था। कैसा संतोषमय जीवन था, अपने पसीने की कमाई खाते थे और सुख की नींद सोते थे। इस शिक्षा ने मुझे चौपट कर दिया, विलास का दास बना दिया, अनावश्यक आवश्यकताओं की बेड़ी पैरों में डाल दी। अब तो उस पुराने जीवन की कल्पनामात्र से प्राण सूख जाता है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book