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प्रेमचन्द की कहानियाँ 36

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :189
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9797
आईएसबीएन :9781613015346

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का छत्तीसवाँ भाग


बाबू हरिविलास को मालूम था कि शिवविलास इसका क्या जवाब देगा। उसके राजनैतिक विचारों से परिचित थे। दोनों आदमियों में प्राय: इस विषय पर वाद-विवाद होता रहता था, लेकिन वह न चाहते थे कि इन जमींदारों के सामने वह अपने स्वाधीन विचार प्रगट करें। शिवविलास को बोलने का अवसर न देकर आप ही बोले- ''मैं तो इसे पागलपन समझता हूँ निरा पागलपन। यह लोग समझते हैं कि इन कार्रवाइयों से वह हमारी सरकार को परास्त कर देंगे। कुछ लोग देहातों में पंचायतें भी बनाते फिरते हैं। इसका मतलब भी यही है कि सरकारी अदालतों की जड़ खोदी जाए; लेकिन कोई इन भलेमानसों से पूछे कि क्या कानून की गुत्थियाँ इन देहातियों के सुलझाए सुलझ जाएँगी। जिस कानून के पढ़ने और समझने में उम्रें गुजर जाती हैं उसका व्यवहार यह हलजुते क्या खाकर करेंगे। शासन की बुनियाद परम्परा से सत्य और न्याय पर स्थित रही है और जब तक शासक लोग इस मूल तत्त्व को भूल न जाएँ, राज्य की अवनति नहीं हो सकती। हमारी सरकार ने सदैव इस आदर्श को अपने सामने रखा है। प्रत्येक जाति को, प्रत्येक व्यक्ति को उस रेखा तक कर्म और वचन की पूर्ण स्वाधीनता दे दी है कि जहाँ तक उससे दूसरों को कोई हानि न हो। यही न्यायप्रियता हमारी सरकार को अमर बनाए हुए है। जोर दिया जा रहा है कि लोग सरकारी नौकरियाँ छोड़ दें। इस उद्देश्य का पूरा होना और भी कठिन है। मैं यह मानता हूँ कि कर्मचारी लोग बड़ी संख्या में इस नीति पर चलें तो सरकार के काम में बाधा पड़ सकती है, लेकिन ऐसा होना असंभव-सा जान पड़ता है। कर्मचारियों में अच्छे और बुरे दोनों ही हैं। जो बुरे हैं वह नौकरी कभी न छोड़ेंगे, इसलिए कि बेईमानी और रिश्वत के ऐसे अवसर और कहीं नहीं मिल सकते। जो अच्छे हैं उनके लिए भी यहाँ जाति-सेवा और उपकार का बड़ा विस्तृत क्षेत्र है। उन्हें किसी पर अन्याय करने के लिए मजबूर नहीं किया जाता। सरकार किसी गुप्त और प्रजाघातक नीति का व्यवहार नहीं करती। ऐसा दशा में यह लोग भी पृथक् नहीं हो सकते। नौकरी को गुलामी कहकर उसकी निंदा की जाती है, लेकिन मैं उस वक्त तक इसे गुलामी नहीं समझ सकता, जब तक हमें अपने धर्म और आत्मा के विरुद्ध चलने पर विवश न किया जाए।'' जमींदारों ने यह बातें बड़े ध्यान से सुनीं। ऐसा जान पड़ता था कि इस विषय में सबके सब बाबू हरिविलास से सहमत हैं। हाँ, शिवविलास इन युक्तियों का प्रतिवाद करने के लिए अधीर हो रहे थे, पर इतने आदमियों के सामने मुँह खोलने का साहस न होता था।

इतने में बेगार ने चिट्ठियों का थैला लाकर डिप्टी साहब के आगे रख दिया। यद्यपि शहर यहाँ से 15 मील के लगभग था, पर एक बेगार प्रतिदिन डाक लाने के लिए भेजा जाता था। डिप्टी साहब ने उत्सुकता के साथ थैला खोला तो उसमें लाल फीते से बँधा हुआ एक सरकारी 'कम्युनिक' (प्रकाशपत्र) निकल पड़ा। उसे गौर से पढ़ने लगे।

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