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प्रेमचन्द की कहानियाँ 35

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :380
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9796
आईएसबीएन :9781613015339

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग


राम ने जटायु का सिर अपनी गोद में रख लिया। लक्ष्मण दौड़े कि पानी लाकर उसका मुंह तर करें, किन्तु इतने में जटायु के प्राण निकल गये। इस वन में एक सहायक था, वह भी मर गया। राम को इसके मरने का बहुत खेद हुआ। बहुत देर तक उसके निष्प्राण शरीर को गोद में लिये रोते रहे। ईश्वर से बारबार यही प्रार्थना करते थे कि इसे स्वर्ग में सबसे अच्छी जगह दीजियेगा, क्योंकि इस वीर ने एक दुखियारी की सहायता में प्राण दिये हैं, और औचित्य की सहायता के लिए रावण जैसे बली पुरुष के सम्मुख जाने से भी न हिचका। यही मित्रता का धर्म है। यही मनुष्यता का धर्म है। वीर जटायु का नाम उस समय तक जीवित रहेगा, जब तक राम का नाम जीवित रहेगा।

लक्ष्मण ने इधर-उधर से लकड़ी बटोरकर चिता तैयार की, रामचन्द्र ने मृत शरीर उस पर रखा, और वेदमन्त्रों का पाठ करते हुए उसकी दाहक्रिया की। फिर वहां से आगे बढ़े। अब उन्हें सीता का पता मिल गया था, इस बात की व्याकुलता न थी कि सीता कहां गयीं। यह चिन्ता थी कि रावण से सीता को कैसे छीन लेना चाहिए। इस काम के लिए सहायकों की आवश्यकता थी। बहुत बड़ी सेना तैयार करनी पड़ेगी, लंका पर आक्रमण करना पड़ेगा। यह चिन्ताएं पैदा हो गयी थीं। चलते-चलते सूरज डूब गया। राम को अब किसी बात की सुधि न थी, किन्तु लक्ष्मण को यह विचार हो रहा था कि रात कहां काटी जाय। न कोई गांव दिखायी देता था, न किसी ऋषि का आश्रम। इसी चिंता में थे कि सामने वृक्षों के एक कुंज में एक झोंपड़ी दिखायी दी। दोनों आदमी उस झोंपड़ी की ओर चले। यह झोंपड़ी एक भीलनी की थी जिसका नाम शबरी था। उसे जो ज्ञात हुआ कि यह दोनों भाई अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र हैं, तो मारे खुशी के फूली न समायी, बोली- धन्य मेरे भाग्य कि आप मेरी झोंपड़ी तक आये। आपके चरणों से मेरी झोंपड़ी पवित्र हो गयी। रात भर यहीं विश्राम कीजिए। यह कहकर वह जंगल में गयी और ताजे फल तोड़ लायी। कुछ जंगली बेर थे, कुछ करौंदे, कुछ शरीफे। शबरी खूब रसीले, पके हुए फल ही चुन रही थी। इस भय से कि कोई खट्टा न निकल जाय, वह प्रायः फलों को कुतरकर उनका स्वाद ले लेती। भीलनी क्या जानती थी कि जूठी चीज खाने के योग्य नहीं रहती। इस प्रकार वह एक टोकरी फलों से भर लायी और खाने के लिए अनुरोध करने लगी। इस समय दुःख के मारे उनका जी कुछ खाने को तो न चाहता था, किन्तु शबरी का सत्कार स्वीकार था। यह कितने प्रेम से जंगल से फल लायी है, इसका विचार तो करना ही पड़ेगा। जब फल खाने आरम्भ किये तो कोई-कोई कुतरे हुए दिखायी दिये, किन्तु दोनों भाइयों ने फलों को और भी प्रेम के साथ खाया, मानो वह जूठे थे, किन्तु उनमें प्रेम का रस भरा हुआ था। दोनों भाई बैठे फल खा रहे थे और शबरी खड़ी पंखा झल रही थी। उसे यह डर लगा हुआ था कि कहीं मेरे फल खट्टे या कच्चे न निकल जायं, तो ये लोग भूखे रह जायंगे। शायद मुझे घुड़कियां भी दें। राजा हैं ही, क्या ठिकाना। किन्तु जब उन लोगों ने खूब बखान-बखान कर फल खाये, तो उसे मानो स्वर्ग का ठेका मिल गया।

दोनों भाइयों ने रात वहीं व्यतीत की। प्रातः शबरी से विदा होकर आगे ब़े।

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