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प्रेमचन्द की कहानियाँ 35

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :380
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9796
आईएसबीएन :9781613015339

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग


इधर अयोध्या में कुहराम मचा हुआ था। मालूम होता था, सारा शहर उजाड़ हो गया है। जहां कल सारा शहर दीपकों से जगमगा रहा था, वहां आज अंधेरा छाया हुआ था। सुबह जहां मंगलगीत हो रहे थे, वहां इस समय हर घर से रोने की आवाजें आती थीं। दुकानें बन्द थीं। जहां दो आदमी मिल जाते, यही चर्चा होने लगती। बेटा हो तो ऐसा हो! पिता की आज्ञा पाते ही राजपाट पर लात मार दी। संसार में ऐसा कौन होगा। बड़े-बड़े राजा एक बालिश्त जमीन के लिए लड़ते-मरते हैं। भाई, भी तो ऐसा हो। सबसे अधिक प्रशंसा सीताजी की हो रही थी। पुरुषों के लिए जंगल की कठिनाइयां सहना कोई असाधारण बात नहीं, स्त्री के लिए असाधारण बात थी। सती स्त्रियां ऐसी होती हैं। जिसने कभी पृथ्वी पर पांव नहीं रखा, वह जंगल में चलने के लिए तैयार हो गयी। सच है, कुसमय में ही स्त्री और मित्र की परख होती है।

उधर रनिवास शोकगृह बना हुआ था। किसी को तनबदन की सुध न थी।

राजा दशरथ की मृत्यु

तमसा नदी को पार करके पहर रात जाते-जाते रामचन्द्र गंगा के किनारे जा पहुंचे। वहां भील सरदार गुह का राज्य था। रामचन्द्र के आने का समाचार पाते ही उसने आकर प्रणाम किया। रामचन्द्र ने उसकी नीच जाति की तनिक भी चिन्ता न करके उसे हृदय से लगा लिया और कुशलक्षेम पूछा। गुह सरदार बाग़बाग़ हो गया—कौशल के राजकुमार ने उसे हृदय से लगा लिया! इतना बडा सम्मान उसके वंश में और किसी को न मिला था। हाथ जोड़कर बोला- आप इस निर्धन की कुटिया को अपने चरणों से पवित्र कीजिये। इस घर के भी भाग्य जागें। जब मैं आपका सेवक यहां उपस्थित हूं तो आप यहां क्यों कष्ट उठायेंगे।

रामचन्द्र ने गुह का निमन्त्रण स्वीकार न किया। जिसे वनवास की आज्ञा मिली हो, वह नगर में किस प्रकार रहता। वहीं एक पेड़ के नीचे रात बितायी। दूसरे दिन परातःकाल रामचन्द्र ने सुमन्त्र से कहा- अब तुम लौट जाओ, हम लोग यहां से पैदल जायंगे। माताजी से कह देना कि हम लोग कुशल से हैं, घबराने की कोई बात नहीं।

सुमन्त्र ने रोकर कहा- महाराज दशरथ ने तो मुझे आप लोगों को वापस लाने का आदेश दिया था। खाली रथ देखकर उनकी क्या दशा होगी! राम ने सुमन्त्र को समझा बुझाकर विदा किया। सुमन्त्र रोते हुए अयोध्या लौटे। किन्तु जब वह नगर के निकट पहुंचे तो दिन बहुत शेष था। उन्हें भय हुआ कि यदि इसी समय अयोध्या चला जाऊंगा तो नगर के लोग हजारों प्रश्न पूछ-पूछकर परेशान कर देंगे। इसलिये वह नगर के बाहर रुके रहे। जब संध्या हुई तो अयोध्या में प्रविष्ट हुए।

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