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प्रेमचन्द की कहानियाँ 35

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :380
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9796
आईएसबीएन :9781613015339

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग


कौशल्या फूटफूटकर रोने लगीं- बेटा, किस मुंह से जाने को कहूं! मन को किसी प्रकार संष्तोष नहीं होता। धर्म का प्रश्न है, रोक भी नहीं सकती। जाओ! मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ रहेगा। जिस तरह पीठ दिखाते हो, उसी तरह मुंह भी दिखाना। यह कहते-कहते कौशल्या रानी दुःख से मूर्छा खाकर गिर पड़ीं। यहां से तीनों आदमी सुमित्रा के पास गये और उनके चरणों पर सिर झुकाकर रानी कैकेयी के कोपभवन में महाराज दशरथ से विदा होने गये। राजा मृतक शरीर के समान निष्प्राण और नि:स्पंद पड़े थे। तीनों आदमियों ने बारी-बारी से उनके चरणों पर सिर झुकाया। तब राम बोले- महाराज! मैं तो अकेला ही जाना चाहता था, किन्तु लक्ष्मण और जानकी किसी प्रकार मेरा साथ नहीं छोड़ते, इसलिए इन्हें भी लिये जाता हूं। हमें आशीर्वाद दीजिये।

यह कहकर जब तीनों आदमी वहां से चले तो राजा दशरथ ने जोर से रोकर कहा- हाय राम! तुम कहां चले? उन पर एक पागलपन की सी दशा आ गयी। भले और बुरे का विचार न रहा। दौड़े कि राम को पकड़कर रोक लें, किन्तु मूर्च्छा खाकर गिर पड़े। रात ही भर में उनकी दशा ऐसी खराब हो गयी थी कि मानो बरसों के रोगी हैं।

अयोध्या में यह खबर मशहूर हो गयी थी। लाखों आदमी राजभवन के दरवाजों पर एकत्रित हो गये थे। जब ये तीनों आदमी भिक्षुकों के वेश में रनिवास से निकले तो सारी प्रजा फूटफूटकर रोने लगी। सब हाथ जोड़-जोड़कर कहते थे, महाराज! आप न जायं। हम चलकर महारानी कैकेयी के चरणों पर सिर झुकायेंगे, महाराज से प्रार्थना करेंगे। आप न जायं। हाय! अब कौन हमारे साथ हमदर्दी करेगा, हम किससे अपना दुःख कहेंगे, कौन हमारी सुनेगा, हम तो कहीं के न रहे।

रामचन्द्र ने सबको समझाकर कहा- दुःख में धैर्य के सिवा और कोई चारा नहीं। यही आपसे मेरी विनती है। मैं सदा आप लोगों को याद करता रहूंगा।

राजा ने सुमन्त्र को पहले ही से बुलाकर कह दिया था कि जिस प्रकार हो सके, राम, सीता और लक्ष्मण को वापस लाना।

सुमन्त्र रथ तैयार किये खड़ा था। रामचन्द्र ने पहले सीता जी को रथ पर बैठाया, फिर दोनों भाई बैठे और सुमन्त्र को रथ चलाने का आदेश दिया। हजारों आदमी रथ के पीछे दौड़े और बहुत समझाने पर भी रथ का पीछा न छोड़ा। आखिर शाम को जब लोग तमसा नदी के किनारे पहुंचे, तो राम ने उन्हें दिलासा देकर विदा किया।

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