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प्रेमचन्द की कहानियाँ 35

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :380
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9796
आईएसबीएन :9781613015339

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का पैंतीसवाँ भाग


रोशनुद्दौला को मुँह-माँगी मुराद मिली। उसकी ईर्ष्या कभी इतनी संतुष्ट न हुई थी। वह मग्न था कि आज वह काँटा निकल गया, जो बरसों से हृदय में चुभा हुआ था। आज हिन्दू राज्य का अन्त हुआ। अब मेरा सिक्का चलेगा। अब मैं समस्त राज्य का विधाता होऊँगा। संध्या से पहले ही राजा साहब की स्थावर और जंगम संपत्ति कुर्क हो गई। वृद्ध माता-पिता, सुकोमल रमणियाँ, छोटे-छोटे बालक सब-के-सब जेल में कैद कर दिए गए। कितनी करुण दशा थी! वे महिलाएँ, जिन पर कभी देवताओं की भी निगाह न पड़ी थी, खुले मुँह नंगे पैर, पाँव घसीटतीं, शहर की भरी सड़कों और गलियों से होती हुई, सिर झुकाए शोक-चित्रों की भाँति, जेल की तरफ चली जाती थीं। सशस्त्र सिपाहियों का एक बड़ा दल साथ था। जिस पुरुष के इशारे पर कई घण्टे पहले सारे शहर में हलचल मच जाती, उसी के खानदान की यह दुर्दशा!

राजा बख्तावरसिंह को बंदीगृह में रहते हुए एक मास बीत गया। वहाँ उन्हें सभी प्रकार के कष्ट दिये जाते थे। यहाँ तक कि भोजन भी यथासमय न मिलता था। उनके परिवार को असहा यातनाएँ दी जाती थीं। लेकिन राजा साहब को बंदीगृह में एक प्रकार की शांति का अनुभव होता था। वहाँ प्रतिक्षण यह खटका तो न रहता था कि बादशाह मेरी किसी बात से नाराज न हो जायँ; मुसाहब लोग कहीं मेरी शिकायत तो नहीं कर रहे हैं। शारीरिक कष्टों का सहना उतना कठिन नहीं, जितना मानसिक कष्टों का। यहाँ सब तकलीफें थीं, पर सिर पर तलवार तो नहीं लटक रही थी। उन्होंने मन में निश्चय किया कि अब चाहे बदमाश मुझे मुक्त भी कर दें, मगर मैं राज-काज से अलग ही रहूँगा। इस राज्य का सूर्य अस्त होनेवाला है; कोई मानवी शक्ति उसे विनाश-निशा में लीन होने से नहीं रोक सकती। ये उसी पतन के लक्षण हैं, नहीं तो क्या मेरी राज्य-भक्ति का यही पुरस्कार मिलना चाहिए था? मैंने अब तक कितनी कठिनाइयों से राज्य की रक्षा की है, यह भगवान ही जानते हैं। एक तो बादशाह की निरंकुशता, दूसरी ओर बलवान् और युक्ति-सम्पन्न शत्रुओं की कूटनीति - इस शिला और भँवर के बीच में राज्य की नौका चलाते रहना कितना कष्ट-साध्य था! शायद ही कोई ऐसा दिन गुजरा होगा, जिस दिन मेरा चित्त प्राण-शंका से आंदोलित न हुआ हो। इस सेवा, भक्ति और तल्लीनता का यह पुरस्कार है। मेरे मुख से व्यंग्य शब्द अवश्य निकले, उनके लिए इतना कठोर दंड! इससे तो यह कहीं अच्छा होता कि मैं कत्ल कर दिया गया होता। अपनी आँखों से अपने परिवार की यह दुर्गति तो न देखता। सुनता हूँ, पिताजी को सोने के लिए चटाई नहीं दी गई। न-जाने स्त्रियों पर कैसे-कैसे अत्याचार हो रहे होंगे। लेकिन इतना जानता हूँ कि प्यारी सुखदा अंत तक अपने सतीत्व की रक्षा करेगी, अन्यथा प्राण त्याग देगी। मुझे इन बेड़ियों की परवा नहीं। पर सुनता हूँ, लड़कों के पैरों में भी बेड़ियाँ डाली गई हैं। यह सब इसी कुटिल रोशनुद्दौला की शरारत है। जिसका जी चाहे, इस समय सता ले, कुचल ले; मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं। भगवान् से यही प्रार्थना है कि अब संसार से उठा ले। मुझे अपने जीवन में जो कुछ करना था, कर चुका, और फल पा चुका। मेरे-जैसे आदमी के लिए संसार में स्थान नहीं है।

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