कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 30 प्रेमचन्द की कहानियाँ 30प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसवाँ भाग
राजकुमार ने लज्जित होकर कहा- ''अच्छा तो आप द्वार पर खड़ी रहिएगा।''
मीरा- ''यदि फिर कोई दगा की तो जान से हाथ धोना पड़ेगा।''
राजकुमार- ''मैं सब कुछ सहने के लिए तैयार हूँ।''
मीरा यहीं से राणा की सेवा में पहुँची। राणा उसका बहुत आदर करते थे। वे खड़े हो गए। इस समय मीरा का आना एक असाधारण बात थी! उन्होंने पूछा- ''बाई जी, क्या आज्ञा है? ''
मीरा- ''आप से भिक्षा माँगने आई हूँ। निराश न कीजिएगा। मैंने आज तक आपसे कोई विनती नहीं की पर आज एक ब्रह्म फाँस में फँस गई हूँ। इसमें से मुझे आप ही निकाल सकते हैं। मंदार के राजकुमार को तो आप जानते हैं?''
राणा- ''हाँ, अच्छी तरह।''
मीरा- ''आज उसने मुझे बड़ा धोखा दिया। एक वैष्णव महात्मा का रूप भरकर रणछोड़जी के मंदिर में आया और उसने छल करके मुझे वचन देने पर बाध्य किया। मेरा साहस नहीं होता कि उसका कपट विनय आपसे कहूँ।''
राणा- ''प्रभा से मिला देने को तो नहीं कहा?''
मीरा- ''जी हाँ, उसका अभिप्राय वही है लेकिन सवाल यह था कि मैं आधी रात को राज्यमहल का गुप्तद्वार खोल दूँ। मैंने उसे बहुत समझाया, बहुत धमकाया, पर वह किसी भाँति न माना। निदान, विवश होकर मैंने वादा कर लिया तब उसने प्रसाद पाया। अब मेरे वचन की लाज आपके हाथ है। आप चाहे उसे पूरा करके मेरा मान रखें, चाहे उसे तोड़कर मेरा मान तोड़ दें। आप मेरे ऊपर जो कृपादृष्टि रखते हैं, उसी के भरोसे पर मैंने वचन दिया है। अब मुझे इस फंदे से उबारना आप ही का काम है।
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