कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 30 प्रेमचन्द की कहानियाँ 30प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसवाँ भाग
मीरा ने हाथ जोड़कर कहा- ''महाराज, आपने प्रसाद को छुआ भी नहीं। दासी से कोई अपराध तो नहीं हुआ?''
साधु- ''नहीं, इच्छा नहीं थी।''
मीरा- ''पर मेरी विनय आपको माननी पड़ेगी।''
साधु- ''मैं तुम्हारी आज्ञा पालन करूँगा, तो तुमको भी मेरी एक बात माननी होगी।''
मीरा- ''कहिए क्या आशा है।''
साधु- ''माननी पड़ेगी।''
गीरा- ''मानूँगी।''
साधु- ''वचन देती हो?''
मीरा- ''हाँ वचन देती हूँ आप प्रसाद पाएँ।''
मीराबाई ने समझा था कि साधु किसी मंदिर बनवाने या कोई यज्ञ पूर्ण करा देने की याचना करेगा। ऐसी बातें नित्यप्रति हुआ करती थीं और मीरा का सर्वस्त्र साधु-सेवा पर अर्पण था, परंतु उस साधु ने ऐसी कोई याचना न की। वह मीरा के कानों के पास मुँह ले जाकर बोला- ''आज दो घंटे के बाद राजभवन का चोर दरवाजा खोल देना।''
मीरा विस्मित होकर बोली- ''आप कौन हैं?''
साधु ''मंदार का राजकुमार।''
मीरा ने राजकुमार को सिर से पाँव तक देखा। नेत्रों में आदर की जगह घृणा थी। कहा- ''राजपूत यों छल नहीं करते।''
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