कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 30 प्रेमचन्द की कहानियाँ 30प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तीसवाँ भाग
प्रभा बोली- ''नहीं।''
राणा- ''झालावार जाना चाहती हो?''
प्रभा- ''नहीं।''
राणा- ''मंदार के राजकुमार के पास भेज दूँ?''
प्रभा- ''कदापि नहीं।''
राणा- ''लेकिन मुझसे यह तुम्हारा कुढ़ना देखा नहीं जाता।''
प्रभा- ''आप इस कष्ट से शीघ्र ही मुक्त हो जाएँगे।''
राणा ने भयभीत दृष्टि से देखकर कहा ''जैसी तुम्हारी इच्छा।''
राजकुमार उठकर चले गए।
दस बजे रात का समय था। रणछोड़जी के मंदिर में कीर्तन समाप्त हो चुका था और। और वैष्णव बैठे हुए प्रसाद पा रहे थे। मीरा स्वयं अपने हाथों से थाल ला-लाकर उनके पास रखती थी। साधुओं और अभ्यागतों के आदर-सत्कार में उस देवी को आत्मिक आनंद प्राप्त होता था। साधुगण जिस उत्साह और प्रेम से भोजन करते थे, उससे यह शंका होती थी कि स्वादपूर्ण वस्तुओं में कहीं भक्ति-भजन से भी अधिक सुख तो नहीं है। यह सिद्ध हो चुका है कि ईश्वर की दी हुई वस्तुओं का सदुपयोग ही ईश्वरोपासना की मुख्य रीति है। इसलिए ये महात्मा लोग उपासना के ऐसे अच्छे अवसर को क्यों खोते? वे कभी पेट पर हाथ फेरते और कभी आसन बदलते थे। मुँह से 'नहीं' कहना तो वे घोर पाप के समान समझते थे। यह भी मानी हुई बात है कि जैसी वस्तुएँ हम सेवन करते हैं, वैसी ही आत्मा भी बनती है। इसलिए ये महात्मागण घी और खोए से उदर को खूब भर रहे थे।
पर इन्हीं में एक महात्मा ऐसे भी थे, जो आँखें बंद किए ध्यान में मग्न थे। थाल की ओर ताकते भी न थे। इनका नाम प्रेमानंद था। ये आज ही आए थे। इनके चेहरे पर कांति झलकती थी। अन्य साधु-वर्ग खाकर उठ गए, परंतु उन्होंने थाल को छुआ भी नहीं है।
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