कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 29 प्रेमचन्द की कहानियाँ 29प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का उन्तीसवाँ भाग
सहसा एक बूढ़े अछूत ने उठकर पूछा- हम लोग भी उन्हीं ऋषियों की संतान हैं?
लीलाधर- निस्संदेह। तुम्हारी धमनियों में भी उन्हीं ऋषियों का रक्त दौड़ रहा था, और यद्यपि आज का निर्दयी, कठोर, विचार-हीन, संकुचित हिंदू-समाज तुम्हें अवहेलना की दृष्टि से देख रहा है, तथापि तुम किसी हिंदू से नीच नहीं हो, चाहे वह अपने को कितना ही ऊँचा समझता हो।
बूढ़ा- तुम्हारी सभा हम लोगों की सुध क्यों नहीं लेती?
लीलाधर- हिंदू-सभा का जन्म अभी थोड़े ही दिन हुए हुआ है, और इस अल्पकाल में उसने जितने काम किये हैं, उन पर अभिमान हो सकता है। हिंदू-जाति शताब्दियों के बाद गहरी नींद से चौंकी है। और अब वह समय निकट है, जब भारतवर्ष में कोई हिंदू किसी हिंदू को नीच न समझेगा, जब सब एक-दूसरे को भाई समझेंगे। श्रीरामचंद्र ने निषाद को छाती से लगाया था, शबरी के जूठे बेर खाये थे...
बूढ़ा- आप इन्हीं आत्माओं की संतान हैं, तो फिर ऊँच-नीच में क्यों इतना भेद मानते हैं?
लीलाधर- इसलिए कि हम पतित हो गये हैं। अज्ञान में पड़कर उन महात्माओं को भूल गए हैं।
बूढ़ा- अब तो आपकी निद्रा टूटी है, हमारे साथ भोजन करोगे?
लीलाधर- मुझे कोई आपत्ति नहीं है।
बूढ़ा- मेरे लड़के से अपनी कन्या का विवाह कीजिएगा?
लीलाधर- जब तक तुम्हारे जन्म-संस्कार न बदल जाएँ, जब तक तुम्हारे आहार-व्यवहार में परिवर्तन न हो जाए, हम तुमसे विवाह का सम्बन्ध नहीं कर सकते। माँस खाना छोड़ो, मदिरा पीना छो़ड़ो, शिक्षा ग्रहण करो, तभी तुम उच्च वर्ग के हिंदुओं में मिल सकते हो।
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