कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 22 प्रेमचन्द की कहानियाँ 22प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बाइसवाँ भाग
कुँवर साहब की आँखें लाल थीं। मुख की आकृति भयंकर हो रही थी। कई मुख्तार और चपरासी बैठे हुए आग पर तेल डाल रहे थे। पंडितजी को देखते ही कुँवर साहब बोले- ''चाँदपार वालों की हरकत आपने देखी?''
पंडितजी ने नम्र भाव से कहा- ''जी हाँ, सुनकर बहुत शोक हुआ। ये तो ऐसे सरकश न थे।''
कुँवर साहब- ''यह सब आप ही के आगमन का फल है। आप अभी स्कूल के लड़के हैं। आप क्या जानें कि संसार मैं कैसे रहना होता है। यदि आपका बर्ताव असामियों के साथ ऐसा ही रहा तो फिर मैं जमींदारी कर चुका। यह सब आपकी करनी है। मैंने इसी दरवाजे पर असामियों को बाँध-बाँध कर उलटे लटका दिया है और किसी ने चूँ तक न की। आज उनका यह साहस कि मेरे ही आदमी पर हाथ चलाएँ।''
दुर्गानाथ (कुछ दबते हुए)- ''महाशय, इसमें मेरा क्या अपराध? मैंने तो जब से सुना है, तभी से स्वयं सोच में पड़ा हूँ।''
कुँवर साहब- ''आपका अपराध नहीं तो किसका है? आप ही ने तो इनको सर चढ़ाया। बेगार बंद कर दी, आप ही उनके साथ भाईचारे का बर्ताव करते हैं, उनके साथ हँसी-मज़ाक़ करते हैं। ये छोटे आदमी इस बर्ताव की कदर क्या जानें। किताबी बातें स्कूलों ही के लिए हैं। दुनिया के व्यवहार का क़ानून दूसरा है। अच्छा जो हुआ, सो हुआ। अब मैं चाहता हूँ कि इन बदमाशों को इस सरकशी का मज़ा चखाया जाए। असामियों को आपने मालगुजारी की रसीदें तो नहीं दी हैं?''
दुर्गानाथ (कुछ डरते हुए)- ''जी नहीं, रसीदें तैयार हैं, केवल आपके हस्ताक्षरों की देर है।''
कुँवर साहब (कुछ संतुष्ट होकर)- ''यह बहुत अच्छा हुआ। शकुन अच्छे हैं। अब आप इन रसीदों को चिराग अली के सिपुर्द कीजिए। इन लोगों पर बक़ाया लगान की नालिश की जाएगी, फ़सल नीलाम करा लूँगा। जब भूखों मरेंगे, तब सूझेगी। जो रुपया अब तक वसूल हो चुका है, वह बीज और ऋण के खाते में चढ़ा लीजिए। आपको केवल यही गवाही देनी होगी कि यह रुपया मालगुजारी के मद में नहीं कर्ज के मद में वसूल हुआ है। बस।''
दुर्गानाथ चिंतित हो गए। सोचने लगे कि क्या यहाँ भी उसी आपत्ति का सामना करना पड़ेगा, जिससे बचने के लिए, इतने सोच-विचार के बाद, इस शांतिकुटीर को ग्रहण किया था। क्या जान-बूझकर इन ग़रीबों की गर्दन पर छुरी फेरूँ, इसलिए कि मेरी नौकरी बनी रहे। नहीं, यह मुझसे न होगा। बोले- ''क्या मेरी शहादत बिना काम न चलेगा?''
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