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प्रेमचन्द की कहानियाँ 22

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9783
आईएसबीएन :9781613015209

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बाइसवाँ भाग


यह सब सुनकर पंडितजी ने केवल यही उत्तर दिया- ''जिसके सिर पर पड़ेगा वह भुगत लेगा। मुझे इसकी चिंता करने की क्या आवश्यकता? '' एक चपरासी ने साहस बाँधकर कहा- ''इन असामियों को आप जितना ग़रीब समझते हैं, उतने ग़रीब ये नहीं हैं। इनका ढंग ही ऐसा है। भेस बनाकर रहते हैं। देखने में ऐसे सीधे-सादे मानो बेसींग की गाय हैं, लेकिन सच मानिए इनमें का एक-एक आदमी हाई कोरट का वकील है।''

चपरासियों के इस बादविवाद का प्रभाव पंडितजी पर कुछ न हुआ। उन्होंने प्रत्येक गृहस्थ से दयालुता और भाईचारे का आचरण करना आरंभ किया। सबेरे से 8 बजे तक वे ग़रीबों को बिना दाम औषधियाँ देते, फिर हिसाब-किताब का काम देखते। उनके सदाचरण ने असामियों को मोह लिया। मालगुजारी का रुपया जिसके लिए प्रतिवर्ष कुरकी तथा नीलाम की आवश्यकता होती थी, इस वर्ष एक इशारे पर वसूल हो गया। किसानों ने अपने भाग सराहे और वे मनाने लगे कि हमारे सरकार की दिनों-दिन बढ़ती हो।

कुँवर विशाल सिंह अपनी प्रजा के पालनपोषण पर बहुत ध्यान रखते थे। वे बीज के लिए अनाज देते और मजूरी और बैलों के लिए रुपए। फसल करने पर एक का डेढ़ वसूल कर लेते। चाँदपार के कितने ही असामी इनके ऋणी थे। चैत का महीना था। फ़सल कट-कटकर खलियान में आ रही थी। खलियान मेँ से कुछ नाज घर में भी आने लगा था। इसी अवसर पर कुँवर साहब ने चाँदपार वालों को बुलाया और कहा- ''हमारा नाज और रुपया बेबाक कर दो। यह चैत का महीना है। जब तक कड़ाई न की जाए तुम लोग डकार नहीं लेते। इस तरह काम नहीं चलेगा।''

बूढ़े मलूका ने कहा- ''सरकार, भला असामी कभी अपने मालिक से बेबाक हो सकता है। कुछ अभी ले लिया जाए, कुछ फिर दे देवेंगे। हमारी गर्दन तो सरकार की मुट्ठी में है।''

कुँवर साहब- ''आज कौड़ी-कौड़ी चुकाकर यहाँ से उठने पाओगे। तुम लोग हमेशा इसी तरह हीला-हवाला किया करते हो।''

मलूका (विनय के साथ) - ''हमारा पेट है, सरकार की रोटियाँ हैं, हमको और क्या चाहिए। जो कुछ उपज है, वह सब सरकार ही की है।''

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