ई-पुस्तकें >> गोस्वामी तुलसीदास गोस्वामी तुलसीदाससूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
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महाकवि तुलसीदास की पद्यात्मक जीवनी
[26]
इसने ही जैसे बार-बार
दूसरी शक्ति की की पुकार--
साकार हुआ ज्यों निराकार, जीवन में;
यह उसी शक्ति से है वलयित
चित देश-काल का सम्यक् जित,
ऋतु का प्रभाव जैसे संचित तरु-तन में!
[27]
विधि की इच्छा सर्वत्र अटल;
यह देश प्रथम ही था हत-बल;
वे टूट चुके थे ठाट सकल वर्णों के;
तृष्णोद्धत, स्पर्धागत, सगर्व
क्षत्रिय रक्षा से रहित सर्व;
द्विज चाटुकार, हत इतर वर्ग पर्णों के।
[28]
चलते फिरते पर निस्सहाय,
वे दीन, क्षीण कंकालकाय;
आशा-केवल जीवनोपाय उर-उर में;
रण के अश्वों से शस्य सकल
दलमल जाते ज्यों, दल के दल
शूद्रगण क्षुद्र-जीवन-सम्बल, पुर-पुर में।
[29]
वे शेष-श्वास, पशु, मूक-भाष,
पाते प्रहार अब हताश्वास;
सोचते कभी, आजन्म ग्रास द्विजगण के
होना ही उनका धर्म परम,
वे वर्णाधम, रे द्विज उत्तम,
वे चरण-चरण बस, वर्णाश्रम-रक्षण के!
[30]
रक्खा उन पर गुरू-भार, विषम
जो पहला पद, अब मद-विष-सम;
द्विज लोगों पर इस्लाम-क्षम वह छाया,
जो देशकाल को आवृत कर
फैली है सूक्ष्म मनोनभ पर,
देखी कवि ने समझा अब-वर, क्या माया।
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