ई-पुस्तकें >> गोस्वामी तुलसीदास गोस्वामी तुलसीदाससूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
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महाकवि तुलसीदास की पद्यात्मक जीवनी
[21]
"अब स्मर के शर-केशर से झर
रँगती रज-रज पृथ्वी, अम्बर;
छाया उससे प्रतिमानस-सर शोभाकर;
छिप रहे उसी से वे प्रियतमम
छवि के निश्छल देवता परम;
जागरणोपम यह सुप्ति-विरम भ्रम, भ्रम भर।"
[22]
बहकर समीर ज्यों पुष्पाकुल
वन को कर जाती है व्याकुल,
हो गया चित्त कवि का त्यों तुलकर, उन्मन;
वह उस शाखा का वन-विहग
छोड़ता रंग पर रंग-रंग पर जीवन।
[23]
दूर, दूरतर, दूरतम, शेष,
कर रहा पार मन नभोदेश,
सजता सुवेश, फिर-फिर सुवेश जीवन पर,
छोड़ता रंग फिर-फिर सँवार
उड़ती तरंग ऊपर अपार
संध्या ज्योति ज्यों सुविस्तार अम्बर तर।
[24]
उस मानस उर्ध्व देश में भी
ज्यों राहु-ग्रस्त आभा रवि की
देखी कवि ने छवि छाया-सी, भरती-सी--
भारत का सम्यक देशकाल;
खिंचता जैसे तम-शेष जाल,
खींचती, बृहत से अन्तराल करती-सी।
[25]
बँध भिन्न-भिन्न भावों के दल
क्षुद्र से क्षुद्रतर, हुए विकल;
पूजा में भी प्रतिरोध-अनल है जलता;
हो रहा भस्म अपना जीवन,
चेतना-हीन फिर भी चेतन;
अपने ही मन को यों प्रति मन है छलता।
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