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वीर बालक
वीर बालक
प्रकाशक :
भारतीय साहित्य संग्रह |
प्रकाशित वर्ष : 2016 |
पृष्ठ :94
मुखपृष्ठ :
ईपुस्तक
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पुस्तक क्रमांक : 9731
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आईएसबीएन :9781613012840 |
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178 पाठक हैं
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वीर बालकों के साहसपूर्ण कृत्यों की मनोहारी कथाएँ
वीर बालक बादल
उस समय दिल्ली की गद्दी पर अलाउद्दीन खिलजी बादशाह होकर बैठा था। यह बहुत धूर्त तथा निष्ठुर बादशाह था। राजपूताने में चित्तौड़ के सिंहासन पर उस समय राणा रतनसिंह (रत्नसिंह ) विराजमान थे। अलाउद्दीन ने सुना कि राणा की महारानी पद्मिनी बहुत ही सुन्दर हैं। वह पद्मिनी को किसी भी प्रकार पाने के लिये बड़ी भारी सेना लेकर राजपूताने गया और चित्तौड़ से थोड़ी दूर पर उसने अपनी सेना का पड़ाव डाला। उस धूर्त ने राणा के पास संदेश भेजा- 'मैं पद्मिनी का प्रतिबिम्ब शीशे में देखकर लौट जाऊँगा।' महाराणा रतनसिंह ने इतनी बात के लिये व्यर्थ रक्तपात करना अच्छा नहीं समझा। उनके बुलाने पर अलाउद्दीन दुर्ग में आया। दर्पण में रानी पद्मिनी का प्रतिबिम्ब उसे दिखा दिया गया। लौटते समय राणा उसे दुर्ग से बाहर तक पहुँचाने आये। दुर्ग से बाहर अलाउद्दीन ने पहले से अपने सैनिक छिपा रखे थे। उन्होंने राणापर आक्रमण करके उन्हें पकड़ लिया और बन्दी बनाकर वे अपने शिविर में ले गये। राणा के बन्दी हो जाने से चित्तौड़ के दुर्ग में हाहाकार मच गया। बादशाह की सेना इतनी बड़ी थी कि उससे सीधे संग्राम करके विजय पाने की कोई आशा नहीं थी। अन्त में रानी पद्मिनी के मामा गोरा ने एक योजना बनायी। अलाउद्दीन को संदेश भेजा गया- 'रानी पद्मिनी बादशाह के पास आने को तैयार है यदि उनके आ जाने पर बादशाह राणा को छोड़ दें। रानी के साथ सात सौ दासियां भी आयेंगी। शाही सैनिक उन्हें रोकें नहीं। बादशाह ने इस बात को बड़े उत्साह से स्वीकार कर लिया। सायंकाल अन्धकार होने पर दुर्ग से सात सौ पालकियां निकलीं। बादशाह के सैनिक विजय के उन्माद में उत्सव मना रहे थे। शाही सेना में पहुँचकर रानी ने पहले राणा से भेंट करनी चाही और यह माँग भी स्वीकार हो गयी।
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