ई-पुस्तकें >> वापसी वापसीगुलशन नन्दा
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सदाबहार गुलशन नन्दा का रोमांटिक उपन्यास
''ऐसा नहीं हो सकता।''
''क्यों नहीं हो सकता?''
''मैं तुम्हारी रुचि को भलीभांति जानता हूं।''
''झूठ।''
''तो सच क्या है, तुम्हीं बता दो।''
''सच बहुत कड़वा है, मिस्टर रणजीत!'' पूनम ने रशीद की आंखों में आंखें डालते हुए त्योरी चढ़ाकर कहा।
''ओह...मैं तुम्हारा इशारा समझ गया, तुम्हें मेरी रात वाली बात बुरी लगी। वास्तव में, मैं उसके लिए क्षमा मांगने आया था।''
''पहले आप ही घायल कर दिया, अब उस पर मरहम लगाने से क्या लाभ?''
''भूल का प्रायश्चित तो करना ही पड़ता है। रात मैं कुछ अधिक ही भावुक हो गया था लेकिन पूनम, तुम इसका अनुमान नहीं लगा सकतीं। मेरे उस दोस्त ने पाकिस्तान में मेरी कितनी सहायता की थी। उसकी सौगंध का ध्यान आया तो मैं अपने बस में न रहा और तुम पर बरस पड़ा। लेकिन बाद में मुझे अपनी मूर्खता का एहसास हुआ कि दोस्ती को अपने प्यार से कम समझा। अब मैं तुम्हें वचन देता हूं पूनम, कि अपनी हर भावना को तुम्हारे प्यार की भेंट कर दूंगा। मेरा धर्म, मेरा ईमान सबकुछ तुम्हारा प्यार होगा।'' कहते-कहते रशीद का गला भर आया और उसने अपनी कांपती हुई उंगलियों से टटोलकर उसकी दी हुई निशानी 'ओम्' का लाकिट उसे दिखाने का प्रयत्न किया।
पूनम रशीद की भीगी हुई आंखें देखकर व्याकुल हो उठी। रशीद के दिल की आंच ने उसके गुस्से को पलभर में पिघला दिया। वह सोच भी नहीं सकती थी कि रात के अंधेरे में क्रोधित और कठोर दिखाई देने वाला फ़ौजी अफ़सर दिन के उजाले में एक मोम का पुतला कैसे बन गया।
तभी उसके बीच छाई निस्तब्धता को हवाई उड़ान की घोषणा ने तोड़ा। दिल्ली जाने वाली उड़ान तैयार थी। यात्री लॉज से उठ-उठकर हवाई जहाज़ की ओर जाने लगे। समय कम था और दिलों में तूफ़ान उमड़े हुए थे। पूनम ने भावों को नियंत्रित करते हुए पूछा- ''दूसरा लाकिट कहां है?''
''मेरे पास है। कल उसे दोस्त को पार्सल करवा दूंगा।'' रशीद ने 'अल्लाह' वाला लाकिट जेब से निकालकर उसे दिखाया।
पूनम ने झट हाथ बढ़ाकर रशीद से उसके दोस्त की निशानी झपट ली और बोली-''लाओ, इसे मैं अपने गले का हार बना लूं।''
''तुम...?''
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