ई-पुस्तकें >> वापसी वापसीगुलशन नन्दा
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सदाबहार गुलशन नन्दा का रोमांटिक उपन्यास
''फुर्सत...? यह क्या कह रही हो? मैं तो घंटे भर से तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं।''
''मेरा इंतज़ार या अपने दोस्तों का मनोरंजन?''
''अरे, वह तो पुराने दोस्त थे। आज अचानक बहुत दिनों के बाद मिले तो बस जम गए मेरी मेज़ पर आकर।''
''और पुराने दोस्त से चुम्बन-प्यार करने लगे।'' पूनम ने व्यंग से कहा।
''तुम्हें भ्रम हो रहा है पूनम। वे जान और रुख़साना हैं...दोनों की कोर्टशिप चल रही है।''
''कोर्टशिप उससे चल रही है और चूमा-चाटी आपसे। क्या आप भी इस कोर्टशिप में साझीदार हैं?''
''यह क्या कह रही हो पूनम? क्या हो गया है तुम्हें?'' रशीद आश्चर्य से बोला।
''मुझे तो कुछ नहीं हुआ, हां आपको ज़रूर कुछ हो गया है जब से पाकिस्तान से लौटे हैं, आदतें ही बदल गई हैं। आवाज़ तक में अंतर आ गया है...व्यवहार शुष्क हो गया है। शायद जलवायु बदलने से मुस्लिम लड़कियां अधिक भाने लगी हैं।''
''पूनम...!!'' रशीद झुंझला गया।
''गुस्सा मत कीजिए। अगर यह बात सच न होती तो रुख़साना के गले का लाकिट आपके पास क्यों होता।'' यह कहते हुए पूनम ने मेज़ पर रखे हुए हैंडबैग में से सोने का लाकिट निकाल कर मेज़ पर रख दिया।
अपने खोये हुए लाकिट को देखकर रशीद को एक झटका-सा लगा। वह आश्चर्य से खड़ा, पूनम की कांपती उंगलियों में लटका हुआ लाकिट देखता रहा। यह क्षण भर का मौन बड़ा दुविधाजनक था...लेकिन उसने झट अपने आपको संभाल लिया और बोला-''कहां मिला तुम्हें?''
''अपने लाज के बग़ीचे में। वहीं गिरा था, जहां आप पत्तों के बीच खड़े थे।''
''लेकिन पूनम...यह लाकिट मेरा है, रुख़साना का नहीं।''
''आपको किसने दिया?''
''एक पाकिस्तानी दोस्त ने। उसने कहा, जब तक बार्डर क्रास नहीं कर लेना, इसे गले से न उतारना। अल्लाह तुम्हारी हिफ़ाज़त करेगा। और मैं यहां आकर भी दोस्त की निशानी को अलग न कर सका।''
''तो अपने-दोस्त की यह निशानी मुझे दे दीजिए न!''
''तुम क्या करोगी?''
''उसकी पूजा, जिसने आपको सुरक्षित मेरे पास तक पहुंचा दिया।''
रशीद ने लाकिट को लेकर चूमा, फिर पूनम को लौटाते हुए बोला-''लो...तुम्हीं रखो...लेकिन इसे खो न देना। मेरी आत्मा से इसका गहरा सम्बन्ध है।''
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