ई-पुस्तकें >> वापसी वापसीगुलशन नन्दा
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सदाबहार गुलशन नन्दा का रोमांटिक उपन्यास
''रात अंधेरी थी...चारों ओर तोपों के गोलों की बौछार से धुआं छाया हुआ था...हर थोड़े समय बाद वातावरण तोप के गोलों की गरज से कांप उठता...हमारी टुकड़ी के बहुत से जवान मारे जा चुके थे और जो बच गए थे उन्हें वापस लौटाने का आदेश मिल चुका था।
''उसी अंधेरी रात की ओट में, जब हम दोनों लौट रहे थे, अचानक खेत में जलता हुआ एक हिन्दुस्तानी हवाई जहाज देखकर रुक गए। उसका पायलेट जीवन की अंतिम सांसे गिन रहा था। हमने जलते हुए जहाज़ से खींचकर उसे बाहर निकाला और उसे बचाने की पूरी कोशिश की, लेकिन वह बच न सका। मरने से पहले उसने वह कैमरा हमारे हवाले कर दिया, जिससे उसने दुश्मन के महत्वपूर्ण अड्डों की तस्वीरें उतारी थीं। उसने अपनी इच्छा प्रकट की थी कि यह फ़िल्म किसी प्रकार उसके कमांडर को पहुंचा दी जाए। लेकिन वह कमांडर का नाम बताने से पहले ही मर गया।''
इतना कहकर गुरनाम ने एक ठंडी आह भरी। क्षणभर के लिए रुककर शराब का आखिरी घूंट गले में उतारते हुए बोला- ''उसके गले में लटकी (Disc) डिस्क पर लिखा था-पायलेट अफ़सर श्रीवास्तव।''
''फिर क्या हुआ?'' उसके रुकते ही रशीद ने उत्सुकता से पूछा।
''उस कैमरे को हमने सावधानी से अपने बैग में डाला और श्रीवास्तव के शरीर को सैल्यूट किया...लेकिन इससे पहले कि हम वहां से खिसकते, दूर से दुश्मनों की एक जीप गाड़ी आती दिखाई दी। हम झट अंधेरे में भागकर खेतों में जा छिपे। लेकिन वहां भी हम सुरक्षित न रह सके। खेतों में थोड़ी ही दूर चलने के बाद एक कड़कती हुई 'हाल्ट' की आवाज़ ने हमारे पांव बांध दिये। यह आवाज़ कुछ ही फ़ासले से आई थी। हमारे पास ही खेत में पक्षियों को डराने वाला बांस का पुतला खड़ा था, जिसके सिर पर उल्टी हंडिया लटक रही थी। तुमने फुर्ती से खिसककर वह कैमरा उस हंडिया में छुपा दिया। फिर ज्यों ही हमने वहां से भागने की कोशिश की, दुश्मन की गोलियों की बौछार ने हमारे पांव वहीं स्थिर कर दिए। दूसरे ही क्षण हम उनकी क़ैद में थे।''
''तो उस फ़िल्म का क्या हुआ?''
''न दुश्मन के हाथ लगी और न हम ही उसे ला सके।''
''तो वह शायद अब तक उसी हंडिया में होगी?'' रशीद ने गुरनाम से पूछा।
गुरनाम ने गिलास से एक और घूंट लेना चाहा, लेकिन गिलास को खाली पाकर वह झुंझला गया और तिलमिला कर बोला-''डैम इट नाऊ विद दैट फ़िल्म...।''
फिर वह गिलास को एक ओर फेंककर वहीं खर्राटे लेने लगा। रशीद के मस्तिष्क में उस फ़िल्म का विचार बार-बार बिजली की तरह कौंधने लगा।
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