ई-पुस्तकें >> वापसी वापसीगुलशन नन्दा
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सदाबहार गुलशन नन्दा का रोमांटिक उपन्यास
उसकी टैक्सी लगभग शाम के चार बजे मनाली पहुंची। अचानक घाटी की बर्फ़ीली हवा से उसने शीत अनुभव किया और अटैची से स्वेटर निकालकर पहन लिया। सड़क के दोनों ओर ऊंचे बरफ से ढके पहाड़ खड़े थे और डूबते हुए सूरज की सुनहरी किरणों ने उनकी चोटियों को सोने के ताज़ पहना दिए थे। घाटी के छोटे-छोटे मकानों से धुएं की रेखाएं सी ऊपर उठ कर वातावरण में छाए कुहरे में मिल रही थीं। जिधर भी दृष्टि जाती, सेवों और दूसरे फलों से झूमते वृक्ष दिखाई देते। रशीद ने पहली बार इस घाटी के स्वर्ग को देखा था और वह इस सुन्दर छटा की मोहिनी में खोया जा रहा था कि अचानक ड्राइवर ने टैक्सी अड्डे पर रोक दी। इस स्थान से आगे गाड़ियों को जाने की मनाही थी।
''बाजार आ गया साहब।'' ड्राइवर की आवाज़ ने रशीद को चौंका दिया। वह अपनी अटची लेकर गाड़ी से बाहर निकल आया और डिक्की में रखा सामान निकलवाकर उसने टैक्सी का किराया चुका दिया।
''राम-राम...कप्तान साहब।'' अचानक एक बूढ़ा-सा आदमी उसके पास आकर हाथ जोड़ता हुआ बोला।
''राम-राम...।'' रशीद ने दबी आवाज़ में उत्तर दिया और सोचने लगा। लद्धूराम के बताए हुए व्यक्तियों में यह कौन व्यक्ति विशेष था।
''अरे भैया...आपने पहचाना नहीं.. मैं कालूराम हूं।'' बूढ़े ने रशीद को असमंजस में देखकर स्वयं उसकी मुश्किल दूर कर दी।
''अरे हां...कालूराम।'' रशीद ने मुस्कराते हुए कहा-''बहुत बदल गए हो, इतने ही दिनों में...कहो अच्छे तो हो?''
''अच्छा हूं कप्तान साहब...आप कहिए अपना हाल...मुझे तो आप बदले हुए दिखाई देते हैं।''
रशीद कालूराम के इस वाक्य पर कुछ चौंक पड़ा। कालूराम ने बात चालू रखते हुए कहा-
''पाकिस्तान से लौटे इतने दिन हो गए और आप अब आ रहे हैं मां से मिलने। आपकी बाट जोहते-जोहते, आंखें पथरा गई हैं बिचारी की। कोई दिन ऐसा नहीं जाता, जब मैं दूध लेकर जाऊं और मां जी आपकी बात न छेड़ दें।''
''हां, कालूराम फ़ौज की नौकरी ही ऐसी है...छुट्टी नहीं मिल पाई...क्या अब भी दूध देने तुम्हीं जाते हो? ''रशीद ने मां और घर के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त करने के लिए उसे बोलने पर उकसाते हुए पूछा।
''हां जाता हूं...परन्तु आपके जाने के बाद तो धंधा ही मारा गया। पहले मां जी दो लीटर दूध लेती थीं... अब एक पाव ही में गुज़र कर लेती हैं।''
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