ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
पुरुरवा
ठीक-ठीक यह नहीं बता सकता हूँ,
इतना ही है ज्ञात, तुम्हारे आते ही अंतर का
द्वार स्वयं खुल गया और प्राणों का निभृत निकेतन्
अकस्मात, भर गया स्वरित रंगों के कोलाहल से।
जब से तुम आई पृथ्वी कुछ अधिक मुदित लगती है;
शैल समझते हैं, उनके प्राणों में जो धारा है,
बहती है पहले से वह, कुछ अधिक रसवती होकर
जब से तुम आईं धरती पर फूल अधिक खिलते हैं,
दौड़ रही कुछ नई दीप्ति सी शीतल हरियाली में।
सब हैं सुखी, एक नक्षत्रों को ऐसा लगता है
जैसे कोई वस्तु हाथ से उनके निकल गई हो।
उर्वशी
और मिले जब प्रथम-प्रथम तुम, विद्युत चमक उठी थी
इन्द्रधनुष बनकर भविष्य के नीले अन्धियाले पर
तुम मेरे प्राणेश, ज्ञान-गुरु, सखा, मित्र, सह्चर हो;
जहाँ कहीं भी प्रणय सुप्त था शोणित के कण-कण में,
तुमने उसको छेड़ मुझे मूर्छा से जगा दिया है।
प्राणों में शीतल शुचिता सद्य:प्रस्फुटित कमल की;
लगता है ऋजु प्रभा हृदय में पुन: लौट आई है
भरी चुम्बनों की फुहार, कम्पित प्रमोद की अति से
जाग उठी हूँ मैं निद्रा से जगी हुई लतिका-सी,
प्रथम-प्रथम ही सुना नाद उद्गम पर बजते जल का,
प्रथम-प्रथम ही आदि उषा की द्युति में भीग रही हूँ।
तन की शिरा-शिरा में जो रागिनियाँ बन्द पड़ी थी,
कौन तुम्हारे बिना उन्हें उन्मोचित कर सकता था?
कौन तुम्हारे बिना दिलाता यह विश्वास हृदय को,
अंतरिक्ष यह स्वयं भूमि है किसी अन्य जगती की,
सम्मुख जो झूमते वृक्ष,वे वृक्ष नहीं बादल हैं?
यह ज्योतिर्मय रूप? प्रकृति ने किसी कनक-पर्वत से
काट पुरुष-प्रतिमा विराट निज मन के आकारों की,
महाप्रान से भर उसको, फिर भू पर गिरा दिया है;
स्यात्, स्वर्ग की सुन्दरियों, परियों को ललचाने को,
स्यात्, दिखाने को, धरती जब महावीर जनती है,
असुरों से वह बली, सुरों से भी मनोज्ञ होता है।
उफ री यह माधुरी! और ये अधर विकच फूलों-से!
ये नवीन पाटल के दल आनन पर जब फिरते हैं,
रोम-कूप, जानें, भर जाते किन पीयूष कणों से!
और सिमटते ही कठोर बाँहों के आलिंगन में,
चटुल एक-पर-एक उष्ण उर्मियाँ तुम्हारे तन की,
मुझमें कर संक्रमण प्राण उन्मत्त बना देती हैं।
कुसुमायित पर्वत-समान तब लगी तुम्हारे तन से,
मैं पुलकित-विह्वल, प्रसन्न-मूर्च्छित होने लगती हूँ
कितना है आनन्द फेंक देने में स्वयं-स्वयं को,
पर्वत की आसुरी शक्ति के आकुल आलोड़न में?
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