ई-पुस्तकें >> उर्वशी उर्वशीरामधारी सिंह दिनकर
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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा
उर्वशी
फूलों-सा सम्पूर्ण भुवन सिर पर इस तरह, उठाए,
यह पर्वत का श्रृंग मुदित हमको क्यों हेर रहा है?
पुरुरवा
अयुत युगों से ये प्रसून यों ही खिलते आए हैं,
नित्य जोहते पंथ हमारे इसी महान मिलन का।
जब भी तन की परिधि पारकर मन के उच्च निलय में,
नर-नारी मिलते समाधि-सुख के निश्चेत शिखर पर
तब प्रहर्ष की अति से यों ही प्रकृति काँप उठती है,
और फूल यों ही प्रसन्न होकर हंसने लगते हैं।
उर्वशी
जला जा रहा अर्थ सत्य का सपनों की ज्वाला में,
निराकार में आकारों की पृथ्वी डूब रही है।
यह कैसी माधुरी? कौन स्वर लय में गूंज रहा है
त्वचा-जाल पर, रक्त-शिराओं में, अकूल अंतर में?
ये ऊर्मियाँ! अशब्द-नाद! उफ री बेबसी गिरा की!
दोगे कोई शब्द? कहूँ क्या कहकर इस महिमा को?
पुरुरवा
शब्द नहीं हैं; यह गूँगे का स्वाद, अगोचर सुख है;
प्रणय-प्रज्वलित उर में जितनी झंकृतियाँ उठती हैं
कहकर भी उनको कह पाते कहाँ सिद्ध प्रेमी भी?
भाषा रूपाश्रित, अरूप है यह तरंग प्राणों की।
उर्वशी
कौन पुरुष तुम?
पुरुरवा
जो अनेक कल्पों के अंधियाले में,
तुम्हें खोजता फिरा तैरकर बारम्बार मरण को,
जन्मों के अनेक कुंजों, वीथियों, प्रार्थनाओं में,
पर, तुम मिली एक दिन सहसा जिसे शुभ्र-मेघों पर
एक पुष्प में अमित युगों के स्वप्नों की आभा-सी।
उर्वशी
और कौन मैं?
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