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उर्वशी

रामधारी सिंह दिनकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :207
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9729
आईएसबीएन :9781613013434

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राजा पुरुरवा और अप्सरा उर्वशी की प्रणय गाथा


इसीलिए, इतिहास पहुंचता जभी निकट नारी के,
हो रहता वह अचल या कि फिर कविता बन जाता है।

हाय, स्वप्न! जानें, भविष्य भू का वह कब आयेगा,
जब धरती पर निनद नहीं, नीरवता राज करेगी;
दिन भर कर संघर्ष पुरुष जो भी इतिहास रचेगा,
बन जाएगा काव्य, सांझ होते ही, भवन-भवन में!
अभी चंड मध्याह्न, सूर्य की ज्वाला बहुत प्रखर है;
दिवस लग्न अनुकूल वह्नि के, पौरुष-पूर्ण गुणों के।
जब आएगी रात, स्यात, तब शांत, अशब्द क्षणों में
मही सिक्त होगी नरेश्वरी की शीतल महिमा से।

और देवि! जिन दिव्य गुणों को मानवता कहते हैं
उसके भी अत्यधिक निकट नर नहीं, मात्र नारी है।
जितना अधिक प्रभुत्व-तृषा से पीड़ित पुरुष-हृदय है,
उतने पीड़ित कभी नहीं रहते हैं प्राण त्रिया के।

कहते हैं, जिसने सिरजा था हमें, प्रकांड पुरुष था;
इसीलिए, उसने प्रवृत्ति नर में दी स्वत्व-हरण की।
और नारियों को विरचा उसने कुछ इस कौशल से,
हम हो जाती हैं कृतार्थ अपने अधिकार गँवा कर।

किंतु, कभी यदि हमें मिला निर्बाध सुयोग सृजन का,
हम होकर निष्पक्ष सुकोमल ऐसा पुरुष रचेंगी,
कोलाहल, कर्कश, निनाद में भी जो श्रवण करेगा,
कातर, मौन पुकार दूर पर खड़ी हुई करुणा की;
और बिना ही कहे समझ लेगा, आँखों-आँखों में,
मूक व्यथा की कसक, आँसुओं की निस्तब्ध गिरा को।

औशीनरी
कितना मधुर स्वप्न! कैसी कल्पना चान्द्र महिमा की!
नारी का स्वर्णिम भविष्य! जानें, वह अभी कहाँ है!
हम तो चलीं भोग उसको, जो सुख-दुख हमें बदा था,
मिले अधिक उज्जवल, उदार युग आगे की ललना को।

आयु
माँ ! हताश मत हो, भविष्य वह चाहे कहीं छिपा हो,
मैं आया हूँ अग्रदूत बन उसी स्वर्ण-जीवन का।
पिया दूध ही नहीं, जननि ! मैं करुणामयी त्रिया के,
क्षीरोज्जवल कल्पनालोक में पल कर बड़ा हुआ हूँ।
जो कुछ मिला मातृ-ममता से, माँके सजल हृदय से,
पिता नहीं, मैंने जीवन में माताएं देखी हैं।

दिया एक ने जन्म, दूसरी माँ ने लगा हृदय से,
पाल-पोस कर बड़ा किया आँखों का अमृत पिलाकर;
अब मैं होकर युवा खोजते हुए यहाँ आया हूँ,
राज-मुकुट को नहीं, तीसरी माँ के ही चरणों को।
माँ! मैं पीछे नृप किशोर, पहले तेरा बेटा हूँ।

[आयु औशीनरी के चरणों पर गिरता है। औशीनरी उसे उठाकर हृदय से लगाती है और अपने आसूँ पोंछती है।]

सुकन्या
बरस गया पीयूष; देवि! यह भी है धर्म त्रिया का,
अटक गई हो तरी मनुज की किसी घाट-अवघट में,
तो छिगुनी की शक्ति लगा नारी फिर उसे चला दे;
और लुप्त हो जाए पुन: आतप, प्रकाश, हलचल से।

सो वह चलने लगी;
आइए, वापस लौट चलें हम,
मैं अपने घर, देवि! आप अपने प्रार्थना-भवन में।
त्यागमयी हम कभी नहीं रुकती हैं अधिक समय तक।
इतिहासों की आग बुझाकर भी उनके पृष्ठों में।

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