ई-पुस्तकें >> तिरंगा हाउस तिरंगा हाउसमधुकांत
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समकालीन कहानी संग्रह
अध्यापक बनने और होने के बीच
५ सितम्बर २००५
आदरणीय गुरूजी,
प्रणाम !
मैं आपका शिष्य राधारमण उर्फ राधे हूँ। शायद आपने मुझे विस्मृत भी कर दिया होगा। यह स्वभाविक भी है क्योंकि एक अध्यापक के जीवन में तो हजारों शिष्य आते है, चले जाते हैं परन्तु शिष्यों के हृदय पटल पर अपने गुरूओं की तस्वीर इतने गहरे से अंकित होती है कि जीवन पर्यन्त उनकी स्मृति बनी रहती है। अध्यापक तो मेरे जीवन में सैकडों आए। कुछ हल्की, कुछ गहरी, कुछ पीडादायक, कुछ सुखद स्मृतियां सबकी संजोयी हुई हैं। उन सब अध्यापकों के बीच गुरू जी तो केवल आप बने। कभी कभी हम सहपाठी मिलते हैं तो आपका जिक्र श्रद्धापूर्वक करते हैं जबकि अन्य शिक्षकों पर उपहास भी करते हैं।
सबसे पहले तो मैं आपको अपनी पहचान कराने का प्रयत्न करता हूँ। वर्ष दो हजार में मैने आपके विद्यालय से बाहरवीं कक्षा पास की थी। मैं मेधावी छात्र तो नहीं था परन्तु प्रारम्भ के आठ दस छात्रों मे मेरा नाम रहता था। मेरा रंग काला था इसलिए आप मुझे राधारमण न कहकर सांवरिया कहा करते थे। मुझे भगवान ने सुरीला कण्ठ दिया है इसलिए आप प्रत्येक शनिवार की बाल सभा में मुझसे गांधी जी का प्रिय भजन सुनते थे, वैष्णव जन से ...।
गुरू जी मै आपकों पत्र के माध्यम से एक शुभ समाचार दे रहा हूँ कि मैं एक गाँव के सरकारी स्कूल में नियुक्त हो गया हूँ। अध्यापक होने के लिए मुझे आपके अनेक अनुभव याद हैं और भविष्य में भी आपसे मार्गदर्शन लेता रहूँगा।
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